जून के महीने में यूं झूमकर कभी बरसात नहीं हुई
गंगा के रेती पर यूं रंग बिरंगे कभी फूल नहीं खिले
लाख जतन हुए ,उत्तम कोटि के खाद और बीज का प्रयोग कर ।
पर रेती पर ना फूल उगने थे ना उगे ।
पर महामारी के इस दौर में बहुत कुछ बदल गया
जेठ की दुपहरी बरसी और मानवता छलनी हो गयी ।
अपनों के दुख पर समंदर जी भरकर मचला
लोग समझे तोक्ते आया ।
समझना भी कहां आसान होता है
लोग कुछ भी समझते हैं ।
समंदर के चित्कार से बादलों का कलेजा फटा और खुब रोये
जिनसें रेती पर फूल उग आए और उन्हें मोक्ष मिल गया
क्योंकि अब शायद मोक्ष का जिम्मा भी प्रकृत ने ले लिया ।
मानव ने पीछा छुड़ाया , प्रकृत ने मोक्ष दिलाया
अब मोक्ष के लिए अपनों की नहीं ,प्रकृत की जरूरत है ।
॥ आरती मिश्रा ॥