भारतीय संस्कृति में रचे- बसे डॉ राधाकृष्णन
(मानवेंद्र नाथ-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
शिक्षक दिवस – 5 सितम्बर पर विशेष
वेदांत ही धर्म है, के व्याख्याकार भारतीय दर्शन के मर्मज्ञ, महान शिक्षाविद, कुशल राजनयिक भारत
के प्रथम उपराष्ट्रपति व द्वितीय राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिवस 5 सितम्बर
शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए जाने के
पीछे एक घटना का उल्लेख किया जाता है। जब राधाकृष्णन राष्ट्रपति थे, कुछ विद्यार्थी उनसे भेंट
करने गए, उन्होंने कहा कि हम आपका जन्म दिवस मनाना चाहते हैं, प्रत्युत्तर में डॉ राधाकृष्णन बोले ,
मुझे खुशी होगी , मेरा जन्म दिवस मनाने की बजाय यदि आप मेरे जन्म दिवस पर अपने शिक्षकों का
सम्मान करें । इस प्रकार 5 सितम्बर , 1962 से शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा प्रारम्भ हो गई।
भारत सरकार ने भी 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस की मान्यता प्रदान कर दी । विद्यार्थी अपने गुरुओं
का सम्मान करते हैं, उन्हें भेंट भी देते हैं। राष्ट्रपति शिक्षक दिवस पर देश के चयनित शिक्षकों को
राष्ट्रपति भवन में पुरस्कृत करते हैं। ध्यान रहे विश्व शिक्षक दिवस 5 अक्टूबर को मनाया जाता
है। विश्व शिक्षक दिवस व भारत के शिक्षक दिवस में मूलभूत अंतर यह है कि 5 अक्टूबर को शिक्षक
आपस में ही शिक्षक दिवस मनाते हैं। जबकि 5 सितम्बर को भारत में शिक्षक दिवस शिक्षक न मनाकर
छात्र अपने गुरु के प्रति श्रद्धा समर्पण के द्वारा मनाते हैं । उल्लेखनीय है कि युगों – युगों से भारत
में आषाढ़ मास की पूर्णिमा जो श्रीमद्भगवद गीता के रचनाकार , त्रिकालदर्शी , अप्रतिम शिक्षक व
विद्वान महर्षि व्यास का जन्म दिवस है , गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाई जाती है। आधुनिक सन्दर्भ में
भी देखा जाय तो आद्य शंकराचार्य से लेकर स्वामी दयानंद , स्वामी विवेकानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द
, महामना मालवीय, महर्षि अरविंद , लोकमान्य तिलक , वीर सावरकर ,मास्टर सूर्यसेन जैसे अनेक
मनीषी भारत भूमि पर अवतरित हुए हैं, जिनका शिक्षा क्षेत्र में अमूल्य योगदान रहा तथा शिक्षार्थी उन्हें
अपार सम्मान देते थे । डॉ राधाकृष्णन के जन्म दिवस को ही शिक्षक दिवस घोषित करने में उसी
प्रकार संयोग रहा , जिस प्रकार वन्दे मातरम की बजाय जनगणमन के प्रथम पद को राष्ट्रगान
घोषित कर दिया गया। डॉ राधाकृष्णन की प्रतिभा अलौकिक थी । उनके व्याख्यान से जहां विद्यार्थी
मन्त्रमुग्ध हो जाते थे , वही विश्व की दो महाशक्तियां रूस व अमेरिका के शासक डॉ राधाकृष्णन के
व्याख्यान से सम्मोहित जैसे हो जाते थे । भारत की विदेश नीति के शिल्पकार नेहरूजी माने जाते
हैं परन्तु जानकारों का मानना है कि भारतीय विदेश नीति पर डॉ राधाकृष्णन का प्रभाव था। डॉ॰
राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो तत्कालीन मद्रास से लगभग 64 कि॰ मी॰ की
दूरी पर स्थित है, 5 सितम्बर 1888 को हुआ था। जिस परिवार में उन्होंने जन्म लिया वह एक ब्राह्मण
परिवार था। उनका जन्म स्थान भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है। राधाकृष्णन के पुरखे
पहले कभी श्सर्वपल्लीश् नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम
की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन उनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के
ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिये। इसी कारण उनके परिजन अपने नाम के पूर्व श्सर्वपल्लीश् धारण
करने लगे थे।
शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक व्यक्ति पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी
अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों के
भीतर काफी गहराई तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन
करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में वे गुण समाहित हो गये। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया
जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे
और उनकी आलोचना करते थे। उनकी आलोचना को डॉ॰ राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दू
शास्त्रों का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉ॰ राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः
किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है? तब स्वाभाविक
अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर
रहने वाले गरीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधाकृष्णन ने
तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय अध्यात्म काफी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों
द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं। इससे
इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को
जीवन का सच्चा सन्देश देती है॰ राधाकृष्णन ने यह भली भाँति जान लिया था कि जीवन बहुत ही छोटा
है परन्तु इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना
चाहिये। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो अमीर गरीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी
प्रकार का वर्ग भेद नहीं करती। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता
है। सादगीपूर्ण सन्तोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असन्तोष का निवास
है। एक शान्त मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों सेय जो संसदों एवं दरबारों में सुनायी देती
हैं। वस्तुतरू इसी
कारण डॉ॰ राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वे
मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए कहा गया है कि
आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं।
इसी कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फँसे लोगों की मदद
करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों
का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिये समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट
पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफी नजदीक
हो गये। डॉ राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के
द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अतरू विश्व को एक ही इकाई मानकर
शिक्षा का प्रबन्धन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये गए अपने भाषण में डॉ॰
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था- ष्मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव
जाति की मुक्ति तभी सम्भव है जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शान्ति की स्थापना का
प्रयत्न हो।ष् डॉ॰ राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से परिपूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हल्की
गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में
उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को भी देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका
गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय
बना देते थे। इसलिये इनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप मे मनाया जाता है ।
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