आंखों सुनी-कानो देखी.
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आज दिन की चर्चा उत्तरप्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव प्रचार तथा उससे जुड़ी निष्पक्षता पर रही है।
यद्यपि निष्पक्ष पद विधानसभा अध्यक्ष के पद पर कार्य और उसके आचरण पर विधानसभा में चर्चा नही हो सकती। विधानसभा से बाहर भी गैर जरूरी चर्चा नही हो सकती,परंतु व्यवस्था में विधानसभा अध्यक्ष पदासीन व्यक्ति से यह अपेक्षा रहती है कि वह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस पद की गरिमा यथा-स्थित अनवरत करेगा। इस पद से उस संस्कृति की अपेक्षा भी रहती जिसमें दलीय झुकाव से विरक्त लोकतांत्रिक समन्वय की सत्य आधारशिला हो। यह आधारशिला उन परिस्थितियों में तब और जागरूक हो जाती है जब विधानसभा अध्यक्ष का निर्वाचन निर्विरोध हो। विधानसभा अध्यक्ष एक शक्तिशाली और गरिमा सहित पद ज्ञात है,परंतु निकट वर्षो में इस पद की निष्पक्षता पर निरंतर उठते सवाल गिरते राजनीतिक मूल्य तथा दरकती आस्था पर निशब्द होती परिस्थिति लोकतंत्र को और बुढ़ापे की ओर बढ़ा रही है। पूर्व में उदाहरण हैं कि पश्चिम बंगाल विधानसभा के अध्यक्ष विमान बनर्जी द्वार दलहित में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर सवाल उत्तरांचल विधानसभा में पारिवारिक भर्तियों में नैतिकता पर उठे सवाल मद्धय प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष पर कांग्रेस द्वारा उठाये गए सवाल राजस्थान में विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी पर अशोक गहलोत के पक्ष में उठे सवाल वर्ष 2022 में बिहार के विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा के ऊपर सत्तापक्ष के आरोप तथा महाराष्ट्र के विधानसभा अध्यक्ष को च्युत करने के प्रस्ताव पर प्रश्न इस बिंदु पर ठहराव अवश्य देता है कि दल-रहित विधानसभा अध्यक्ष का पद गिरते राजनीतिक चिंतन के कारण उनके निष्पक्ष होने की स्थिति से उन्हें निरंतर रहित करता है। विधान मंदिर के इस सर्वोच्च प्राधिकार की निष्पक्षता यदि आज सवाल उत्तरप्रदेश में भी उठ रहे है तो एक बात अवश्य स्पष्ट हो जाती है कि पद का सयुंक्त संस्कृति का संकलित गठाव शायद अब विखंडित हो चला है। जिसका अंत तुरंत नही दिखता। प्रसंग अवसर नही ठोकर दे रहा है।–सुजीत