Dr. A.K.Dubey
एक पचपन की स्त्री आयी अपने बेटे, बहु और पति के साथ। समस्या थी, सास-बहू का कलह जो अब बहु को अवसाद में डाल रहा था। बेटा एकलौता था और ना तो घर छोड़ माँ से ही अलग हो पा रहा था नाही अपनी पत्नी के दुख को सम्भाल पा रहा था। पिता का धैर्य भी अब जवाब दे चुका था।
उस स्त्री ने बताया कि कैसे बहु तमाम ऐसी चीजें करती है जो उनके जमाने में स्त्री कभी नहीं किया करती थी। वे तमाम चीजें थी- बहु का जीन्स पहनना, फ़िल्म देखने जाना, ट्रेकिंग ट्रिप बनाना और ऐसी ही एक हजार एक टुच्ची बातें जो अभी के जमाने में पली-बढ़ी हर सामान्य लड़की करती है। बेटा पर भी बीवी की ऐसी हर बात को पूरा समर्थन देने का इल्जाम था। पति पर बहु की इन हरक़तों पर ध्यान ना देने का इल्जाम था। अतः पूरा परिवार ही स्त्री के नजर में दोषी था इस बदले समीकरण के लिये।
बेटे और पिता चाह रहे थे कि दोनों तरफ से कुछ compromise हो जाये तो गाड़ी किसी तरह आगे बढ़, इसीलिये family counselling की मांग की । पर psychologist ने साफ मना कर दिया और बोला अगली बार वह स्त्री अकेली आएगी। स्त्री ने विरोध किया कि हरयाणा से दिल्ली तक उसे अकेले ऐसे-कैसे बुलाया जा सकता है। डॉक्टरी चक्कर में तो साथ होना ही चाहिये लोगों को। वहाँ भी नहीं तो कम से कम कार चलाने के लिए तो पुरुष चाहिए ही होगा। पर Psychologist ने एक नहीं सुनी। हालांकि बेटे को अलग से बता दिया गया था कि अगर माँ का डिसीजन ना बदले तो वह साथ लेकर आ जाये।
पर वह स्त्री अकेली आयी। बेटे ने जबरदस्ती भेजा, बस से। दूसरे सेशन में भी सिर्फ मन का गुब्बार निकालती रही। कैसे उनकी जिंदगी सास-ससुर की सेवा में बीती और कैसे अब बहु उसका एक चौथाई भी नहीं करती जितना उन्होंने किया था। बुढ़ापे में कोई सहारा नहीं है अब उस बेचारी के लिये। फिर उस काउंसलर ने उसे कुछ होमवर्क दिया, अगली बार आने से पहले फ़िल्म देखने जाना, अपने लिये एक मोबाइल खरीदना( उसके पास नहीं थी, नाही उसे जरूरत लगी कभी), और अपने पसंदीदा गानों की एक लिस्ट डाउनलोड करना खुद से।
जब घर पहुंची तो बेटा इस लिस्ट को देखकर चिढ़ गया। उसकी बीवी दुःखी थी और यहाँ psychologist उसकी परम्परावादी घर बैठने वाली मां को फ़िल्म देखने भेज रही थी। पर उसने भी साथ दिया, मन मार कर ही सही। अगले सप्ताह काउंसलिंग के साथ फिर कुछ ऐसे ही होमवर्क मिले। कुछ सेशन बाद परिवार को बुलाया गया। लड़ाइयां अपने आप कम होती जा रही थी।
सास को कई होमवर्क में बहु ने मदद किया था, पुरूषों के पास समय के अभाव की वजह से अगली फ़िल्म दोनों साथ देखने गए थे और काउंसलर के कहे अनुसार पार्लर भी।
हालांकि काउंसलिंग में और भी कई बातें थी, भावनाओं को समझना और उन्हें सम्भालना भी हुआ, पर बदलाव की मुख्य वजह यह थी कि पहली बार यह स्त्री वो चीजे कर पायी जो उसने अपनी सास की डर से कभी नहीं किया था। उसकी सास तो मर गयी पर परम्पराओ का जकड़न साथ रहा, अब यही जकड़न वह बहु पर लादना चाहती थी।लेकिन ज्यादा ध्यान से देखे तो दुःख बहु की हरकतों का नहीं था, दुःख था अपनी आजादी ना पाने का। मां को हमेशा किचन में देखने का आदि बेटा भी कभी नहीं पूछा फ़िल्म देखने चलने के लिये नाही पति ने कभी कहा जाओ सहेलियों के साथ कोई ट्रिप बनाओ। और सच कहा जाए तो उस स्त्री के दिमाग में भी कभी नहीं आया कि उसकी जिंदगी भी किसी अलग गति से अलग रास्ते पर चल सकती है। पर जब एक बार वह अपनी आजादी पाने लगी तो बहु की आजादी देखकर बुरा लगना भी बंद हो गया। काउंसलर ने सास-बहू के समीकरण के बजाय सास की जिंदगी पर ध्यान दिया, उसकी हॉबी ढूंढी, उसके सपनो पर बात की।
इन दिनों वह स्त्री बहु के साथ शिमला जाने के प्लान को लेकर बहुत excited है।
पर ऐसी कहानियाँ तो हर घर में है। अक्सर जब हम पुरानी पीढ़ी के कठोरता की शिकायत करते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि यह वह पीढ़ी थी जिसके अस्तित्व की रचना ही मानो जिम्मेदारी निभाने के लिये हुई। हम चाहते हैं वो हमारी आजादी समझे पर कभी कोशिश नहीं करते उन्हें ज्यादा आजाद करने की। पर कोई इंसान जो हमेशा अपने सपनों से समझौता करता रहा iहो, उसे दूसरे की आजादी भी क्यों अच्छी लगेगी??
इसीलिये बेहतर है,नयी पीढ़ी को समझौता करने के बजाय पुरानी पीढ़ी की कुछ जिम्मेदारियाँ छीन लेनी चाहिये, उन्हें भी आजाद कर देना चाहिये।🙏🙏