हाईकोर्ट में शुक्रवार को उत्तराखण्ड पुलिस विभाग द्वारा हाल ही में जारी पुलिस सेवा नियामावली 2018 (संसोधन सेवा नियमावली 2019) को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की। जिसमें राज्य सरकार को निर्देश दिए है कि यदि विभाग में इस नियमावली के तहत कोई प्रमोशन किया जाता है। तो उसमें स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख किया जाए कि यह सभी पदोन्नति याचिकाओं के अंतिम निर्णय के अधीन रहेंगी। कोर्ट के निर्णय के बाद विभाग में हुए पदोन्नति में आवश्यक सुधार हो सकेगा। मामले की अगली सुनवाई के लिए 24 जून की तिथि नियत की गई है। सुनवाई मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति आरएस चौहान व न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ में हुई।
पुलिस विभाग में कार्यरत सत्येंद्र कुमार व अन्य द्वारा की ओर से हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई है। कहा है कि इस सेवा नियमावली में पुलिस कॉन्स्टेबल आर्म्स फोर्स को पदोन्नति के अधिक मौके दिए हैं। जबकि सिविल व इंटलीजेंस को पदोन्नति के लिये कई चरणों से गुजरना पड़ रहा है। याचिकाकर्ताओं का यह भी कहना है कि उच्च अधिकारियों द्वारा उप निरीक्षक से निरीक्षक व अन्य उच्च पदों पर अधिकारियों की पदोन्नति निश्चित समय पर केवल डीपीसी द्वारा वरिष्ठता/ज्येष्ठता के आधार पर होती है। परन्तु पुलिस विभाग की रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले, पुलिस के सिपाहियों को पदोन्नति हेतु उपरोक्त मापदण्ड न अपनाते हुये, कई अलग-अलग प्रकियाओं से गुजरना पडता है। इसके तहत विभागीय परीक्षा देनी पड़ती है। पास होने के बाद 5 किमी की दौड़ करनी पड़ती है। इन प्रक्रियाओं को पास करने के उपरान्त कर्मियो के सेवा अभिलेखों का परीक्षण किया जाता है। जिसके बाद ही उसकी पदोन्नति होती है।
इस प्रकार उच्च अधिकारियों द्वारा निचले स्तर के कर्मचारियों के साथ दोहरा मानक अपनाया जाता है। जिस कारण 25 से 30 वर्ष की संतोषजनक सेवा (सर्विस) करने के बाद भी सिपाहियों की पदोन्नति नहीं हो पाती है। अधिकांशतः पुलिसकर्मी सिपाही के पद पर भर्ती होते है और सिपाही के पद से ही सेवानिवृत्त हो जाते है। क्योकि निचले स्तर के कर्मचारियों की पदोन्नति हेतु कोई निश्चित समय अवधि निर्धारित नही की गई है और न ही उच्च अधिकारियों द्वारा इस ओर कभी कोई ध्यान दिया गया है। याचिका में कहा गया है कि नियमावली में समानता के अवसर का भी उल्लंघन है।