घरेलू हिंसा : तलाकशुदा पत्नी निवास के अधिकार की हकदार नहीं है’ : केरल हाईकोर्ट

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घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 17 के तहत तलाकशुदा पत्नी निवास के अधिकार की हकदार नहीं है’ : केरल हाईकोर्ट

🔵 केरल हाईकोर्ट ने कहा कि घरेलू हिंसा से महिलाओं संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 17 के तहत तलाकशुदा पत्नी निवास के अधिकार की हकदार नहीं है क्योंकि निवास का अधिकार केवल घरेलू संबंध रखने वाली महिला को उपलब्ध है।

🟢 जस्टिस के. विनोद चंद्रन और एमआर अनीता की डिवीजन बेंच ने कहा कि निवास का अधिकार केवल घरेलू संबंध रखने वाली महिला के लिए उपलब्ध है। हालांकि, अदालत ने कहा कि साझा घर में रहने वाली तलाकशुदा पत्नी को केवल कानून के अनुसार बेदखल किया जा सकता है।

पीठ ने एकल पीठ के एक फैसले विचार कर रही थी जिसमें दो एकल पीठ के निर्णयों में सुलेमान कुंजु बनाम नबीसा बीवी [2015 (3) केएचसी 5] और बिपिन बनाम मीरा [2016 (5) केएच 367] के बीच टकराव देखने को मिला था। यह टकराव घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम के लागू प्रावधानों को तहत तलाकशुदा महिला के अधिकारों के संबंध में है। अदालत ने इस सवाल पर भी विचार किया कि क्या साझा घर में रहने वाली पत्नी का निवास का अधिकार तलाक की मंजूरी के बाद स्वत: समाप्त हो जाता है।

पीठ ने कहा कि,

(i) घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 17 के तहत तलाकशुदा पत्नी निवास के अधिकार की हकदार नहीं होगी क्योंकि यह अधिकार केवल घरेलू संबंध रखने वाली महिला को उपलब्ध है।

(ii) तलाकशुदा पत्नी को ‘पीड़ित व्यक्ति’ की परिभाषा में शामिल किया जाएगा। साझा घर में रहने वाली तलाकशुदा पत्नी को केवल कानून के अनुसार बेदखल किया जा सकता है। अधिनियम की धारा 19 के तहत तलाकशुदा पत्नी आदेश के लिए मजिस्ट्रेट कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है अगर वह साझा घर में रह रही है। अधिनियम की धारा 17(2) का तहत पति द्वारा शुरू किए गए मामलों में पारित निवास का आदेश कानून के अनुसार निष्कासन के लिए किसी भी कार्यवाही के अधीन होंगे।

iii) जब महिला लंबे समय अलग हो गई हो तो ऐसे मामलों में तलाकशुदा महिला को साझा घर पर कब्जा करने का आदेश नहीं दिया सकता है और राहत के रूप में इस तलाकशुदा महिला को साझे घर से बाहर निकाले जाने पर रोक लगाया जा सकता है।

विवादस्पद निर्णय

🔴 कोर्ट ने बिपिन बनाम मीरा [2016 (5) केएच 367] मामले में तलाकशुदा पत्नी की ओर से मांगे गए निवास के अधिकार का कोई आदेश नहीं दिया था और इसके साथ ही कोर्ट ने कहा था कि घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत तलाकशुदा महिला अपने पति के खिलाफ कार्रवाई करने की हकदार है।

🟣 कोर्ट ने वहीं सुलेमान कुंजु बनाम नबीसा बीवी [2015 (3) केएचसी 5] मामले में कहा था कि अधिनियम की धारा धारा 19 [निवास आदेश] के तहत तलाकशुदा पत्नी कोई भी राहत पाने की हकदार नहीं है। कोर्ट के अनुसार ‘घरेलू संबंध’ की परिभाषा के दूसरे भाग के लिए पहले भाग के अनुसार रक्त संबंध, विवाह या विवाह की प्रकृति से स्थापित संबंध को अपनाने या परिवार के सदस्यों के साथ एक संयुक्त परिवार के रूप में रहना है। इस मामले में यह माना गया था कि तलाकशुदा पत्नी घरेलू संबंध की परिभाषा के दूसरे अंग को संतुष्ट नहीं करती है।

‘पीड़ित व्यक्ति’ की परिभाषा में तलाकशुदा महिलाएं भी शामिल हैं।

कोर्ट ने विभिन्न मामलों का हवाला देते हुए कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, ‘पीड़ित व्यक्ति’ की परिभाषा में तलाकशुदा महिला और सुलेमान कुन्जू मामले के फैसले को शामिल करना कानून के तहत सही नहीं है,

🟠“लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के पास समय है और कोर्ट के पास यह अधिकार है कि वह फिर से तलाकशुदा पत्नी की कस्टडी, रखरखाव और अन्य मौद्रिक सहायता, पत्नी और बच्चों की व्यक्तिगत सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मुआवजा और आदेश भी पिछले संबंध से उत्पन्न दायित्वों को पूरा करने के उद्देश्य से घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों को लागू कर सकता है।

🟡इस संदर्भ में ‘पीड़ित व्यक्ति’ की परिभाषा को केवल उन मामलों में प्रतिबंधात्मक अर्थ नहीं जा सकता है जिनमें अधिनियम की धारा 19 के तहत निवास के आदेश की मांग की गई हो। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार ‘पीड़ित व्यक्ति’ की परिभाषा में तलाकशुदा महिला और सुलेमान कुन्जू मामले के फैसले को शामिल करना कानून के तहत सही नहीं है।”

तलाकशुदा पत्नी जो तलाक के समय साझा घर में रह रही है, हालांकि आदेश द्वारा अधिनियम की धारा 19 के तहत वह तलाकशुदा महिला निवास की तब तक हकदार है, जब तक वह कानून की उचित प्रक्रिया द्वारा बेदखल नहीं हो जाती।

🔘पीठ ने कहा कि ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है जिससे अधिनियम की धारा 17 के तहत विशेष रूप से तलाकशुदा महिला के निवास के अधिकार संबंधित सवालों को हल किया जाए।

पीठ ने अधिनियम की धारा 17 का उल्लेख करते हुए कहा कि,

⏹️“उपधारा (1) के अनुसार, साझा घर में निवास करने का अधिकार ‘घरेलू संबंध में रहने वाली महिला के लिए उपलब्ध है। इसमें पर्याप्त भिन्नता है क्योंकि कुछ शब्द जैसे ‘हो गया’, ‘था’ या’ नहीं है’ उपर्युक्त प्रावधान में इस्तेमाल किया गया है और यह अधिकार सिर्फ इसके ही समान संबंध रखने वाली महिला को प्राप्त है। हालांकि, अधिनियम की धारा 17 के उप-खंड (2) और धारा 19 में ‘पीड़ित व्यक्ति’ की परिभाषा में तलाकशुदा पत्नी भी शामिल है। अधिनियम की धारा 19 के तहत साझा घर में रहने वाली तलाकशुदा पत्नी मुआवजा पाने की हकदार होगी और केवल अधिनियम की धारा 17 (2)) के तहत कानून के अनुसार उसे साझे घर से बाहर निकाला जा सकता है।

⏺️अधिनियम की धारा 19 के तहत पारित आदेश में कानून के अनुसार कार्यवाही होगा। यह उन परिस्थितियों में होता है जिसमें तलाकशुदा महिला जो तलाक के समय या उसके बाद साझा घर में रहती है और वह घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट से संपर्क करने में सक्षम है। जो तलाकशुदा पत्नी लंबे समय से साझे घर में नहीं रह रही है वह वापस से उस घर पर कब्जा नहीं कर सकती है। अवधारणात्मक विधायी महिला को घरेलू रिश्ते में साझा घर में निवास का अधिकार प्रदान करने के लिए है और इसके साथ ही तलाकशुदा पत्नी जो तलाक के समय साझा घर में रह रही है तो वह अधिनियम की धारा 19 के तहत निवास के आदेश की हकदार है, इस केवल कानून की उचित प्रक्रिया द्वारा बेदखल किया जा सकता है।”

➡️इस संदर्भ में हमने देखा कि याचिकाकर्ता के काउंसल के अनुसार द्वारा तलाकशुदा पत्नी को उसके तलाकशुदा पति घर में रहने की अनुमति अधिनियम की धारा 19 के क्लॉज (एफ) के तहत दी जा सकती है और इसी धारा के तहत अदालत द्वारा प्रतिवादी को निर्देशित किया जा सकता है कि तलाकशुदा पत्नी के लिए साझा घर के समान ही वैकल्पिक आवास उपलब्ध कराना या उसके रहने के स्थान के किराए का भुगतान करने के लिए कहा जाए। यह एक परेशान महिला के रखरखाव के हक के दायरे में आता है।

इसके अलावा, न्यायालय अधिनियम की धारा 22 के तहत तलाकशुदा महिला के मुआवजे के अधिकार की भी रक्षा करना होगी और एक तलाकशुदा पत्नी जो अविवाहित हो जाती है वह अधिनियम की धारा 125 के तहत रखरखान की हकदार है, इसके लिए अधिनियम की धारा 20 को लागू किया जा सकता है । इस प्रकार यह कानून पीड़ित महिलाओं को आगे बढ़ाता है और यह सुनिश्चित करता है कि वे केवल पति द्वारा प्राप्त तलाक के कारण तलाकशुदा महिला का जीवन खत्म नहीं हो जाता है।

👉कोर्ट ने वर्तमान मामले में कहा कि जब शिकायतकर्ता (पत्नी) द्वारा घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट की अदालत के समक्ष आवेदन दायर किया गया था, तब वह घरेलू संबंध में थी। पीठ ने कहा कि फैमिली कोर्ट के समक्ष पति के खिलाफ पत्नी द्वारा दायर किया गया आवेदन सुनवाई योग्य है क्योंकि वह उस समय घरेलू संबंध में थी।

केस: रामचंद्र वारियर बनाम जयश्री (Crl.Rev.Pet.NO.3079 Of 2009)

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