राजस्थान में चल रहे सियासी संकट के बीच कांग्रेस राजभवन पर धरना देकर विधानसभा का सत्र बुलाने की मांग कर रही है, लेकिन यदि सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था को देखें तो यदि राज्य कैबिनेट सत्र बुलाने की सिफारिश करती है तो राज्यपाल के पास इसे मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है। वह अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह व्यवस्था अरुणाचल प्रदेश से संबंधित नबाम राबिया मामले में (जुलाई 2016 में) दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 174 की जांच कर व्यवस्था दी थी कि राज्यपाल सदन को बुला, प्रोरोग और भंग कर सकता है, लेकिन ये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में की गई मंत्रीपरिषद की सिफारिश पर ही संभव है। राज्यपाल स्वयं ये काम नहीं कर सकते।
कोर्ट ने कहा था कि हमारा मत है कि सामान्य परिस्थितियों में जब मंत्रिपरिषद के पास सदन का बहुमत है तो राज्यपाल की शक्तियां मंत्री परिषद की सलाह और परामर्श से बाध्य हैं, राज्यपाल इस सलाह के अनुसार ही काम करेगा। इस स्थिति में राज्यपाल को व्यक्तिगत रूप से किसी से बात करने की मनाही है, न ही वह अपने विवेकाधिकार का प्रयोग कर सकता है। लेकिन जब राज्यपाल को लगे कि मंत्री परिषद सदन में अपना बहुमत खो चुकी है तो वह मुख्यमंत्री और उनकी कैबिनेट से कह सकता है कि वे सदन में शक्ति परीक्षण के जरिए बहुमत सिद्ध करें।
कोर्ट ने कहा कि यही वह स्थिति है जब अनुच्छेद 174 राज्यपाल को उसके विवेकाधिकार का प्रयोग करने की इजाजत देता है। राजस्थान के मामले यदि राज्यपाल सोचते हैं कि गहलोत सरकार बहुमत खो चुकी है और वह उनकी सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है, इस हालत में भी राज्यपाल को मुख्यमंत्री को यह निर्देश देना पड़ेगा कि वह सदन में बहुमत साबित करें।
सुप्रीम कोर्ट के ऐसे अनेक फैसले हैं जो राज्यपाल को राजभवन में यह फैसले लेने से रोकते हैं कि सरकार के पास सदन में विश्वास और बहुमत है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है शक्ति का परिक्षण सदन के पटल पर ही होगा और कहीं नहीं।