कहाँ गए वो सावन के झूले……?
एक समय वह भी था जब रिम-झिम बारिश की फुहारों के बीच पेड़ों की डाल पर झूले पड़ते थे और उन झूलो पर इठलाती कजरी और मलहार गाती महिलाओं के झुंड दिखाई पडते थे लेकिन अब सावन के महीने मे झूला झूलने की सदियों पुरानी परंपरा अब इतिहास बनती जा रही है। आधुनिकता की दौड़ लोगों का जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि उसे अपने सदियों पुराने और पूर्वजों द्वारा मनाये जाने वाले पर्व त्योहारों और परंपराओं तक की परवाह नहीं रह गई है।
एक समय था जब सावन मास के आते ही घर के आंगन और चबूतरों पर खड़े पेड़ों की डालों पर झूले पड जाते थे। महिलाएं गीत, मलहार गाते हुए झूला झूलने का आनंद लेती थी और महिलाएं ही क्यों नौजवान, वृद्ध सभी इसका आनन्द लेने में पीछे नहीं रहते थे। परंतु धीरे-धीरे सब कुछ बदल सा गया है। आधुनिकता के चलते कम होती पेड़ों की संख्या, बरामदे और आंगन का घटता क्षेत्रफल, खपरैल और कच्चे मकानों की जगह लिए खड़ी बहुमंजिला इमारतों के बीच लोगों की व्यस्तता की वजह से त्योहारों की परंपरा इतिहास के पन्नों में ही रह गयी है। जो निश्चय ही झरोखों से देखते हुए हम पर हंसती होंगी।
पहले पूरे वर्ष महिलाएं बड़ी बेसब्री के साथ सावन मास आने का इंतजार किया करते थे। गांव में महिलाओं की टोलियां रस्सी के सहारे पेड़ों की डाल पर झूला डाल कर दिन भर झूला करती थी शाम को पारंपारिक सावन गीत गाते हुए घर को जाती थी। सावन महीने के शुरू होते ही नवविवाहित युवतियां अपनी ससुराल से पीहर आ जाती थी और गांव की अपनी संग सहेलियों के साथ सावन मास में पढ़ने वाले तीज त्योहारों और झूला झूलते समय अपनी यादों को साझा करते हुए गांव में गुजारे हुए पलों और बचपन की यादों में खो जाती थी। लेकिन समय ने इस कदर करवट लेकिन अब सावन मास के झूले भी अब इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं। दूसरी ओर अब मोबाइल के युग ने भी हमारी सोच को विस्मृत कर दिया है। हमारे पास इतना समय नहीं की हम अपनी प्राचीन परम्परा को संजोकर इस जीवन में उतार सकें।