आलोक वर्मा, जौनपुर, ब्यूरो,
अब नहीं दिखते हैं घरौंदे
समाप्त हो गयी घरौंदे बनाने के प्रति लोगों की रूचि
बाजारों में भी नहीं दिखते अब हाथी, ग्वालिन, कुडेशर
मुंगराबादशाहपुर, जौनपुर। भारतीय संस्कृति के त्योहारों में हर त्यौहार का अपना अलग ही महत्व होता है और जब बात रोशनी के महापर्व दीपावली की हो तो इसका अपना ही अलग महत्व है। दीपावली में जितने जरूरी पटाखे, रंगोली, लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति है। उतना ही महत्वपूर्ण घरौंदा, हाथी, ग्वालिन और कुंडेसर है। कार्तिक माह के प्रारम्भ होते ही लोग अपने घरों में साफ-सफाई का काम शुरू कर देते हैं।
इस दौरान घरों में घरौंदा बनाने का काम शुरू हो जाता था लेकिन अब वह आधुनिकता की दौड़ में लोगों से कोसों दूर होता जा रहा है। स्थानीय नगर मुंगराबादशाहपुर सहित आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों का जहां अब दीपावली के त्यौहार पर बनने वाला घरौंदा अब लोगों की जेहन से खत्म होती जा रही है। खास तौर पर लड़कियां अब सपने में भी नहीं सोच पा रही है। जो भी सोचने की कोशिश करती भी है तो संसाधनों के अभाव या फिर मिट्टी लगने की डर से दूर भाग रही है। इन्टरनेट के युग में यह घरौंदा बनाने की प्रथा अब ओझल होती जा रही है जिससे बच्चों के अन्दर की एक रचनात्मक की कला समाप्त होती जा रही है। घरौंदा घर शब्द से बना है।
दीपावली आगमन पर अविवाहित लड़कियां घरौंदा का निर्माण करती है। अविवाहित लड़कियों द्वारा इसके निर्माण के पीछे मान्यता है कि इसके निर्माण से उनका घर पूरा भरा रहेगा। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्रभु श्रीराम 14 वर्ष का वनवास काटकर अपनी नगरी अयोध्या लौटे थे। उनके आने की खुशी में अयोध्यावासियों ने अपने घरों में दीपक जलाकर उनका स्वागत किया था। लोगों ने यह माना कि अयोध्या नगरी एक बार उनके आगमन से ही बसी। इसी परम्परा के कारण घरौंदा बनाकर उसे सजाने के प्रचलन शुरू हुआ।
घरौंदा सामान्यतः मिट्टी से बनाया जाता है लेकिन मौजूदा वक्त में लकड़ी, कूट और थर्माकोल के भी घरौंदे का निर्माण किया जा रहा है। घरौंदा से खेलना लड़कियों काफी अच्छा लगता है, इसलिए वह उसे ऐसा सजाती है जैसे वह उनका घर हो। घरौंदा सजाने के लिए तरह-तरह के रंग बिरंगे कागज, फूल साथ ही वह इसके अगल-बगल दीए का भी प्रयोग करती है।
इसकी मुख्य वजह यह है कि इससे उसके घर में अंधेरा नहीं हो और सारा घर रोशनी से जगमगाता रहे। आधुनिक दौर में घरौंदा एक मंजिला से लेकर दो मंजिला तक बनाए जाने की परम्परा जारी तो है लेकिन अब यह स्थानीय नगर मुंगराबादशाहपुर या आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में भी कही नज़र नहीं आ रहा है। दीपावली के दौरान ही घर में रंगोली बनाये जाने की परम्परा है। दीपावली के दिन घर की साज-सज्जा का विशेष ध्यान दिया जाता है और रंगोली घर को चार चांद लगा देती है।
नगर की निवासी अनुभा बताती हैं कि घरौंदा बनाने के प्रति लोगों की रुचियाँ खत्म होती जा रही है। इसको बनाने के लिए मिट्टी, कपास, लकड़ी व ईट का प्रयोग किया जाता है। इसको बनाने के लिए पहले से सोचना पड़ता था। हम कई लोग मिलकर पहले से योजना बनाते थे कि एक मंजिला या फिर दो मंजिला घरौंदा बनाना है लेकिन अब धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। लोगों के इधर-उधर ज्यादातर अपने कामों में व्यस्त होने कारण घरौंदा नहीं बन पाता है। घर के काम से जो भी फुर्सत मिलता है। पढ़ाई-लिखाई में ही बीत जाता है। दीपावली के दिन पूजा के लिए बने लकड़ी के मन्दिर में लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति रखकर पूजा कर लिया जाता है।
रतन बाला बताती है कि घरौंदा को बनाने के लिए सबसे पहले मिट्टी की जरूरत पड़ती है। मिट्टी पहले आसानी से मिल जाती थी लेकिन अब नगर के नालियों का गन्दा पानी जाने से पोखरे सूख नही रहे है जिससे साफ मिट्टी मिलना मुश्किल है। साथ ही घरौंदे को सजाने के लिए अन्य समानों की जरूरत पड़ती है।
सोनिया का कहना है कि आधुनिक युग में इन्टरनेट का युग है लोग ज्यादातर अपने घरेलू कार्यो और कुछ फुर्सत मिलने पर मोबाइल में व्यस्त है। लोगों को ठीक से सोने का समय नहीं मिल पाता है। घरौंदे के बारे में सोचना कोसो दूर है। दूसरी बात यह है कि सबसे मुश्किल मिट्टी न मिलना है। आधुनिक युग में लकड़ी के मन्दिर में मूर्ति रखकर पूजा कर लिया जाता है। कुल मिलाकर आज के समय में लोगों के अन्दर से संस्कृति और रचनात्मक कार्यों के प्रति रुचि खत्म होती जा रही है जिसका मुख्य कारण इंटरनेट और मोबाइल है। आजकल ज्यादातर लोग फुर्सत मिलने पर फेसबुक, व्हाटएप्स, यूट्यूब सहित अन्य सोशल मीडिया में अपना समय गवा रहे हैं जिससे दीपावली के समय मे बनाने वाला घरौंदा संस्कृति से लुप्त होता जा रहा है।
उन्होंने बताया कि घरौंदा बनाते वक्त अलग-अलग रंगों का प्रयोग किया जाता है। जो जीवन में नई-नई खुशियां का सूचक है। कई लोग घरौंदे में लक्ष्मी-गणेशकी पूजा भी करते है जिसमें घर में समृद्धि और ख़ुशहाली आती है। बदलते परिवेश के साथ घरौंदे में भी बदलाव देखने को मिलता है। अब बाजार में हर चीज़ रेडिमेन्ट उपलब्ध होने लगी है। हाथ से बनाए घरौंदे के पीछे एक अलग तरह की सकारात्मक होती है। इसी प्रकार दीपावली के त्यौहार में आधुनिकता इस कदर हावी होती चली जा रही है कि कुम्हारों द्वारा बनाए जाने वाले मिट्टी के दिए के स्थान पर मशीन से बने दिए बाजारों में बिकने लगे हैं। मिठाइयों में चीनी से बने हाथी, घोड़े सहित अन्य आकृतियों वाली मिठाइयां, रेवड़ी इत्यादि आदि गुजरे जमाने की बात हो गयी है। मिट्टी से बने हाथी, तोते, ग्वालिन, कुडेशर आदि जो शुभ का प्रतीक माना जाता था। अब बाजारों में ढूढ़ने पर भी नहीं मिलता है या यूं कहे कि इसके बनाने वाले लोग ही अब नहीं रहे। लोगों ने आधुनिकता की दौड़ में अपने बड़े-बुजुर्गो से यह कला ही नहीं सीखा। बहरहाल इस आधुनिकता की दौड़ में वह दिन दूर नहीं जब हमारी आने वाली पीढ़ियों को कोई दीपावली का अर्थ और महत्व बताने वाला नहीं होगा।