अलोक वर्मा ब्यूरो,
“तुमको याद रखेंगे गुरु हम, आई लाइक आर्टिस्ट”
इरफ़ान ख़ान
“ज़िन्दगी छोटी नहीं होती लोग जीना ही देरी से शुरू करते हैं, जब तक रास्ते समझ आते हैं तब तक लौटने का वक़्त हो जाता है”
भारतीय सिनेमा जगत का ये वो नाम है जिसके बारे में दावे से कह सकता हूँ दुनिया में एक भी ऐसा सिनेमा लवर नहीं होगा जो ये नाम सुनके पुरानी यादों में ना खो जाता हो मुस्कुरा ना देता हो पुराने संवाद और चलचित्र याद ना करने लगता हो
आज आपकी सालगिरह पे वहाँ ऊपर जन्नत सजी होगी जश्न का माहौल होगा आप जहाँ होंगे वहाँ खुशियां बिखेर रहे होगे
बीते दिनों आपके ऊपर लिखी हुई ये बेहतरीन किताब हाथ में आई, जिसमें आपकी बीती ज़िन्दगी के ऊपर और आपके साथ बिताये वक़्त को आपके एक पुराने पत्रकार मित्र ने बाखूबी लफ़्ज़ों में पिरोया और किताब की शक़्ल दी, साथ ही आपके साथ काम किये सिनेमा जगत के जानी मानी हस्तियों का आपके बारे में बात करना, आपके अभिनय और आपके अन्दर के इन्सान को और बेहतर समझने का मौका मिला, मैं सभी पढ़ने के शौकीन मित्रों को ये पुस्तक सजेस्ट करुंगा ज़रूर पढ़ें
इरफ़ान वक़्त से पहले चले गये ये कहना तसल्ली देना है अपने आपको, क्या किसी अपने के जाने का कोई सही वक़्त भी होता है , मुझे नहीं लगता
आपके वो कालजयी किरदार आपकी वो बेलौस अदायगी आपके वो करारे संवाद आपकी वो बोलती आँखें आपकी वो जानलेवा बॉडी लैंग्वेज और हाँ आपके वो घने लहराते घुँघराले बाल कभी नहीं भूलेंगे, जब तक ज़िन्दा हैं हम आपकी याद में मुस्कुरायेंगे
आपसे मेरी ज़िन्दगी में पहली मुलाकात भी यादगार किस्सा है जब फिल्में घर से छुपके देखी जाती थी और पैसे इधर उधर से जोड़कर, उन दिनों शहर में आपकी नई फ़िल्म लगी नाम था “हासिल”
जैसे तैसे पैसे जुटाके हम तीन दोस्त साईकल से आपकी फ़िल्म देखने पहुँचे , सॉरी आपसे तो बस कसूर और गुनाह वाली वाकफियत थी , शक़्ल पहचानते थे आपका नाम नहीं, हम तो आशुतोष राणा और जिमी शेरगिल के नाम पे गये थे, मगर बाहर निकले तो आपके नाम को जिगरचस्पा करवा आये
आपसे वो पहली मुलाकात और उसके बाद कसम से आपका नाम नहीं भूले ढूंढ ढूंढ के और इन्तेज़ार कर कर के आपकी हर फिल्म देखी, हर का मतलब हर होता है, हर एक कोई एक भी छोड़ी हो तो हमारा मोबाइल फूट जाये
मक़बूल, रोग, द किलर, ये साली ज़िन्दगी, चॉकलेट, साहेब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स, पान सिंह तोमर, डी डे, जज़्बा , तलवार, मदारी, पीकू, हिन्दी मीडियम, क़रीब करीब सिंगल ये सब तो आज भी रिपीट मोड पे चलती हैं
आपसे इश्क़ है इरफ़ान भाई ता ज़िन्दगी रहेगा अपनी याददाश्त से आपके कुछ संवाद आपको समर्पित कर रहा हूँ दुआ करता हूँ आप तक मेरी दुआ पहुँचे
जल्दी ही ऊपर मुलाकात होगी
संवाद पेश हैं
गलतियाँ भी रिश्तों की तरह होती है करनी नहीं पड़ती हो जाती है-डी डे
आदमी जितना बड़ा होता है उसके छुपने की जगह उतनी ही कम होती है-कसूर
मुझे लगता है हम अक्सर वो चीजें भूल जाते हैं जिन्हें हमें याद दिलाने वाला कोई नहीं होता-द लंचबॉक्स
बीहड़ में बागी होते हैं डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में-पान सिंह तोमर
रिश्तों में भरोसा और मोबाइल में नेटवर्क ना हो तो लोग गेम खेलने लगते हैं-जज़्बा
मोहब्बत है इसलिये जाने दिया ज़िद होती तो बाँहों में होती-जज़्बा
शराफ़त की दुनिया का क़िस्सा ही ख़त्म अब जैसी दुनिया वैसे हम-जज़्बा
दरिया भी मैं, दरख़्त भी मैं, झेलम भी मैं, चिनार भी मैं। दैर भी हूं, हरम भी हूं। शिया भी हूं, सुन्नी भी हूं, मैं हूं पंडित। मैं था, मैं हूं और मैं ही रहूंगा-हैदर
लकीरें बहुत अजीब होती हैं, खाल पे खिंच जाएं तो खून निकाल देती हैं और जमीन पर खिंच जाएं तो सरहदें बना देती हैं-गुंडे
किस्मत की एक ख़ास बात होती है कि वो पलटती है-गुंडे
हमारी तो गाली पर भी ताली बजती है-साहेब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स
जॉब इस जॉब-द किलर
ख़ून का रिश्ता ख़ून बहाके ही ख़त्म किया जा सकता है-फुटपाथ
रोती हुई औरत पे और दूधवाले पे कभी भरोसा नहीं करना चाहिये-कारवां
पैसा अगर भगवान नहीं है तो भगवान कसम भगवान से कम भी नहीं है-चॉकलेट
लोग इक्के से जीतते हैं हम तुझे रानी से जीतके दिखायेंगे-गुनाह
इश्क़ का एक प्रॉब्लम है अगर एक की लगी तो दूसरे की भी लगनी है कभी ना कभी-ये साली ज़िन्दगी
इरफ़ान को बहुत बाद में देखना शुरू किया था। बहुत पहले याद आता है उनकी फ़िल्म “बिल्लू” देखी थी। तब समझ नहीं आया कि यह फ़िल्म शाहरुख़ की थी, या इरफ़ान की। अभी-भी नहीं समझ आया है। पर ऐसा लगा कि इस आदमी को पता नहीं क्यों इतना स्क्रीन-टाइम दिया जा रहा है, जबकि हीरो जैसा तो शाहरुख़ दिखता है। शाहरुख़ तब बहुत पसंद थे, अभी-भी बहुत ज़्यादा। इरफ़ान तब नहीं पसन्द थे, बाद में इरफ़ान का होना मुझपर खुला।
सिनेमा की एलीटनेस ने एक हेजेमनी कायम की है, जहाँ सुंदर होना ही हीरो होना है, या हीरो जैसा होना। पंद्रह साल तक के ज़्यादातर बच्चों को इरफ़ान साइड-ऐक्टर के रूप में ज़्यादा बेहतर लगेंगे, मुख्य किरदार निभाते हुए नहीं। यह स्टारडम की हेजेमनी है जिसे हम बिना ना-नुकुर के स्वीकार लेते हैं। शायद यही वजह है कि कमर्शियल सिनेमा ने इरफ़ान को अपनाने में बहुत देर लगा दी। अजूबों को अपनाने में दुनिया देर लगाती ही है।
मुझे लगता है कि सबसे पहले इरफ़ान को मैंने “चंद्रकांता” में ही देखा होगा, लेकिन तब यह नहीं मालूम था कि यह इरफ़ान हैं। मालूम होता भी तो ध्यान नहीं दिया होता, क्योंकि तब मतलब नहीं था।
हिस्स; साहिब, बीवी और गैंगस्टर; हिंदी मीडियम; मदारी; पीकू; सात खून माफ़; डी-डे; हैदर में उन्हें देखा। समझ आया कि यह तो काफ़ी कुछ अलग करते हैं। बस इससे ज़्यादा नहीं। यह वो समय था जब सिनेमा में रुचि बढ़ रही थी, महज़ मनोरंजन के लिए सिनेमा देखना छोड़ दिया था। और प्रयोगात्मक सिनेमा ढूंढ रहा था। इरफ़ान यहीं मिले।
हासिल देखी, और देखता रह गया। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी वाला भाग जहाँ पिछड़ों की राजनीति करते इरफ़ान रणविजय सिंह के रूप में होते हैं। हिंसक होते हैं। कट्टे और कामभर मोबिलाइजेशन के दम पर गौरीशंकर पाण्डे को बाँस किये रहते हैं। देखकर लगा कि असल सिनेमा तो इधर है। फिर दूरदर्शन पर आने वाला “कहकशां” यूट्यूब पर मिला, जहाँ मखदूम मोहिउद्दीन का किरदार इरफ़ान निभा रहे हैं। एक मार्क्सवादी शायर और अध्यापक जो राजनीतिक कार्यकर्ता भी है। इरफ़ान गुनगुना रहे हैं– “इश्क़ के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे”…
मैं सोचता हूँ कि इरफ़ान मंटो का किरदार निभाते तो ग़ज़ब हो जाता। नवाज़ ने जो किया, कमाल किया, पर फ़र्ज़ कीजिये कि अगर इरफ़ान ने किया होता। इरफ़ान तबियत से भी मंटो के ही करीब दिखते थे। ख़ैर तमाम सपने पूरे नहीं होते, एक सपना यह भी कि इरफ़ान इस रूप में दिखते।
फिर एक बार बात चली तो दि लंचबॉक्स; दि नेमसेक; लाइफ ऑफ पाई; पान सिंह तोमर; मक़बूल आदि देखी गई। इनमें से कई फिल्में इरफ़ान के दुनिया-ए-फ़ानी से जाने से पहले और कुछ बाद में देखी गईं। उनत्तीस अप्रैल को जब इरफ़ान ने विदा कहा तो पान सिंह तोमर ठीक से दोबारा, और हासिल देखी। उनकी हल्की मुस्कान जिसमें ऊपर के होंठ न-जाने किस जाविये से मुड़ते हैं कि अगल-बगल की स्क्रीन खुद-ब-खुद धुंधली पड़ जाती है।
उनकी बैगी आँखें, झोले जैसी लटकी हुई आँखें जिनसे फ़हाद फ़ाज़िल प्रेरणा लेते हैं और फिलॉसॉफी पढ़ना छोड़कर वापिस एक्टिंग में आ जाते हैं, और इरफ़ान जैसे ही बन जाते हैं। प्रयोगवादी, आँखों के अदाकार और मलयालम सिनेमा में छा जाते हैं। सिनेमा में दिलचस्पी इरफ़ान जैसे लोगों से ही बनी हुई रहती है जो यह बताते हैं कि गोरी चमड़ी, सुनहरे बाल, चमकता बदन, पेट में छह बिस्कुट केवल यही ऐक्टर होना नहीं है।
अभी कहीं एक वीडियो देखा जिसमें वह दूरदर्शन पर एक प्ले कर रहे हैं “लाल घास पर नीले घोड़े” और लेनिन बने हुए हैं। मार्क्सवादी दृष्टिकोण से विश्लेषण करने की पैरवी और पेशकश कर रहे हैं। अगर किसी के भी पास इस प्ले की कोई रिकॉर्डिंग या लिंक हो तो भेजें। इस बीच इरफ़ान पर लिखी गई कुछ किताबें भी पढ़ीं।
इरफ़ान सिनेमा में दार्शनिक जैसे दिखते हैं। वह कहते भी हैं कि अगर मुझे लिखना आता, तो मैं ऐक्टर नहीं बनता। इरफ़ान अपना सिनेमा लिख ही रहे थे, जिसे हम हमेशा पढ़ेंगे, देखेंगे, गुनेंगे। शायद डिस्कवरी या हिस्ट्री टीवी 18 पर डाइनोमो-दि मैजिशियन का शो आता था। जब वह भारत आया था तो उसने इरफ़ान से ही मुलाक़ात की, उनके घर गया। इरफ़ान से जुड़ी एक याद यह भी है। सिनेमा के जादूगर से कौन नहीं मिलना चाहता होगा, जो उसके काम और उसके जादू को जानता और समझता होगा।
आज उनकी फ़िल्म “रोग” देखी। जिसमें फ़िल्म की एक किरदार माया सोलोमन के लिए कहा जा रहा है कि वह एक वायरस है, एक रोग जो सबको लग जाता है, फिर छूटता नहीं। इरफ़ान भी ऐसे ही एक रोग हैं। एक वायरस। जो एक बार लग गया तो कोई एंटी डोज और वैक्सीन नहीं बनी। फिर आपको पेट में छह-आठ बिस्कुट वाला हीरो नहीं, इरफ़ान चाहिए होता है। जो कभी लेनिन बन रहा है, कभी रणविजय सिंह। और बोल रहा है कि ” एक बात सुनो पंडित, एक बात सुनो, तुमसे गोली-वोली नहीं चल रही, मंतर फूँक के मार देओ साले।”