ब्यूरो,
शिवपाल यादव ने शुक्रवार को जेल जाकर आजम खां से मुलाकात की और पहली बार अपने बड़े भाई मुलायम सिंह यादव पर ही निशाना साध दिया है। शिवपाल के इस तरह के बदले रुख से सपा में भी बेचैनी है। अब लगता है कि उन्होंने अपने लिए अलग राह चुनना तय कर लिया है। पार्टी से तो वह नाममात्र के लिए ही हैं। परिवार में, सैफई में या यादव लैंड में उनकी भूमिका महत्वाकांक्षा से भरी होगी तो टकराव अभी और बढ़ेगा। क्योंकि अब भूमिका बदलेगी।
अगर आजम खां और शिवपाल साथ आए तो समाजवादी पार्टी का MY यानी मुस्लिम-यादव समीकरण बिगड़ सकता है। यूपी में मुस्लिम अगर आजम खां के साथ लामबंद हुए तो सपा का बड़ा नुकसान तय है। इस चुनाव में करीब 90 फीसदी मुस्लिम वोट सपा को मिला है। मुस्लिम वोटों के कारण ही पश्चिमी यूपी की सीटों पर अधिकांश मुस्लिम विधायक जीते। दोनों मिल कर दल बनाते हैं तो यह सपा के लिए मुश्किल हालात पैदा होना तय है। इसमें अगर ओवैसी भी साथ आए तो यह गठबंधन और मजबूत होगा।
असल में लंबे अर्से से परिवार के मुखिया की भूमिका निभा रहे मुलायम सिंह यादव ने सियासत में अपने परिवार के सदस्यों की भूमिका मोटे तौर पर तय कर दी थी। अखिलेश के सीएम बनने से पहले तक मुलायम ही सर्वेसर्वा थे। पार्टी संगठन का काम शिवपाल के जिम्मे था। शिवपाल दूसरे छोटे-छोटे दलों से गठजोड़ कर मोर्चा बनाने की रणनीति पर भी काम करते रहे हैं। कारपोरेट जगत से रिश्ते बनाने का काम अमर सिंह देखते थे।
रामगोपाल यादव संसद में लंबे समय से सपा के चेहरा रहे हैं। दिल्ली की सियासत में सपा भूमिका को प्रसांगिक बनाने की जिम्मेदारी उनकी ही है। वैचारिक पक्ष को मजबूती से रखने का काम जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, मधुकर दिघे अन्य समाजवादी बखूबी करते थे। वक्त के साथ कई नेता दिवंगत हो गए। अखिलेश सीएम बन गए उसके बाद सत्ता हाथ से निकल गई और सपा या यूं कहिए मुलायम परिवार में आंतरिक कलह थमने के बजाए बढ़ ही रही है।
आखिर शिवपाल के मन का गुबार अचानक क्यों फूट पड़ा। वह अपनी पूरी सियासत में मुलायम के लिए कभी लक्ष्मण तो कभी हनुमान की भूमिका में रहे हैं। जब शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर अखिलेश को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने पार्टी नेतृत्व के निर्णय को चुपचाप माना। जब सीएम पद पर ताजपोशी के लिए अखिलेश को आगे किया गया तो भी वह मन मसोस कर रहे गए लेकिन उफ तक नहीं की। अमर सिंह का प्रकरण हो या कोई आजम खां के पार्टी छोड़ने का मामला। किसी मसले पर शिवपाल यादव ने सार्वजनिक तौर पर अपने मतभेद जाहिर नहीं किए। सपा में जब सत्ता संघर्ष चल रहा था और शिवपाल ने कहा कि एका के लिए वह कोई भी त्याग करने को तैयार हैं। हमने नेता जी पर सारी बातें छोड़ दी हैं। अखिलेश को दुबारा सीएम बनाने के लिए हम तैयार हैं।
सपा नेता व बाद में प्रसपा अध्यक्ष के तौर पर शिवपाल हमेशा यही कहते रहे कि मुलायम सिंह जो कहेंगे वह हम सबको मान्य होगा। वही शिवपाल अब आजम खां के लिए धरना न देने व लोकसभा में सवाल न उठाने को लेकर मुलायम पर आरोप लगा रहे हैं। ऐसा पहली बार हुआ है। जब कभी पार्टी के लिए सियासी जोड़तोड़ का संकट आया तो शिवपाल ने अग्रणी भूमिका निभाई। चाहे पार्टी के अंदरूनी मुद्दे रहे हों या फिर पारिवारिक मुद्दे दोनों भाई एक दूसरे के लिए हमेशा साथ खड़े नज़र आए।
शिवपाल से पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष पद गया, उन्होंने पार्टी छोड़ नई पार्टी बनाई लेकिन उनकी मुलायम से आत्मीयता कभी कम नहीं हुई। वह लगातार मुलायम के दिल्ली व लखनऊ आवास पर जाकर आशीर्वाद लेते रहे हैं। सैफई में होली दिवाली पर वह मुलायम के पैर छूकर सम्मान लेना नहीं भूले। मुलायम ने भी भाई को सियासत में आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने छोटे भाई को साइकिल पर बिठाकर घुमाया तो सियासत का पाठ भी अच्छे से सिखाया।
बेशक कई मौकों पर शिवपाल को पार्टी में चल रहे संघर्ष में मुलायम सिंह यादव का समर्थन मिलने की उम्मीद थी लेकिन मुलायम सिंह यादव ने संतुलित रवैया अपनाते हुए कभी शिवपाल की तारीफ की तो कभी अखिलेश की। तटस्थ रुख लेते दिखे लेकिन वक्त के साथ उन्हें अहसास होने लगा कि वह अकेले पड़ते जा रहे हैं। मुलायम का पूरा समर्थन उनके लिए नहीं भतीजे अखिलेश यादव के लिए ही है। उन्हें इसका मलाल रहा कि नेताजी ने उनका इस मामले में साथ नहीं दिया लेकिन वह अपना दर्द लेकर बैठे रहे। पर इसे कभी जुबां पर नहीं लाए।
इतनी लंबी खामोशी के बाद उन्होंने मुलायम व अखिलेश पर सवाल उठाकर आजम खां समर्थकों व सपा कार्यकर्ताओं में नया संदेश देने की कोशिश की है। यही नहीं उनमें अपने बेटे आदित्य यादव को अभी तक सियासत में स्थापित न कर पाने कसक भी है जबकि मुलायम परिवार में अक्षय यादव, तेज प्रताप यादव, धर्मेंद्र यादव व अन्य सदस्य सांसद रह चुके हैं। अखिलेश ने इस चुनाव में आदित्य को टिकट लायक नहीं समझा। अपर्णा यादव भी खामोशी से भाजपा में चली गईं। यही कारण है कि शिवपाल का धैर्य अब जवाब देने लगा है।
जब सपा में अंतर्कलह चरम पर थी तब दोनों पक्षों में समझौता कराने के लिए आजम खां मध्यस्थता कराने की कोशिश करते दिखते थे। वर्ष 2016 में वह कभी अखिलेश यादव के आवास जाते तो कभी शिवपाल के घर। आजम खां का भी उनके प्रति नर्म रवैया रहा। जब आजम खां सपा छोड़ कर चले गए थे, तब शिवपाल यादव व अन्य नेताओं ने आजम की वापसी सुनिश्चित कराई। दिलचस्त यह कि शिवपाल की दिवंगत अमर सिंह से भी नजदीकी रही जबकि अमर सिंह व आजम खां के बीच दोस्ती ज्यादा नहीं चली और बाद में रिश्ते बिगड़ते चले गए।
आजम खां के लिए मुश्किल वक्त में किसने कितना साथ दिया, किसने अकेला छोड़ दिया। इन सब आरोपों पर सटीक जवाब खुद आजम खां ही दे सकते हैं। माना जा रहा है कि अब उन्हें जमानत मिल सकती है जब उनकी खामोशी टूटेगी। तब साफ होगा कि आजम खां के मीडिया प्रभारी व अन्य मुस्लिम नेताओं के आरोपों से वह खुद सहमत हैं या नहीं। मुलायम सिंह को रफीक-ए-मुल्क बताने वाले आजम खां की उनके बारे में अब भी वही सोच है या जेल में बिताए मुश्किल वक्त ने उन्हें बदल दिया है।