कारगिल में बर्फीले पहाड़ की चोटियां। शत्रु घात लगाए बैठा था। लगभग 1800 फुट ऊपर पहाड़ियों में छिपा दुश्मन भारतीय जांबाजों को रोकने की हर संभव कोशिश कर रहा था। लेकिन हमारे जांबाज प्राणों की परवाह किए बिना बढ़ते रहे। अपनी बहादुरी का परचम दिखाते हुए दुश्मानों को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर कर दिया। कारगिल पर फतह हासिल कर दुनाया को संदेश दिया कि हमसे टकराने वाले मिट्टी में मिल जाएंगे। वर्ष 1999 के उस रण में राजधानी के कई जांबाज शहीद हुए। उन्होंने देश की रक्षा में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।
कारगिल की जब्बार पहाड़ी पर कब्जा, बटालिक सेक्टर से घुसपैठियों को खदेड़ने व कई अन्य आपरेशन को सफलता पूर्वक अंजाम पहुंचाने के बाद कैप्टन मनोज पाण्डेय को खालुबार पर विजय हासिल करने की जिम्मेदारी दी गई। वर्ष 1999 में 2/3 जुलाई की रात धावा बोलकर दुश्मनों के दो ठिकानों को ध्वस्त कर दिया। तीसरे ठिकाने को नष्ट करते समय उनका कंधा व पैर जख्मी हो गया। जख्मों की परवाह किए बिना अपने साथियों के साथ उन्होंने चौथे ठिकाने पर धावा बोल दिया। तभी दुश्मनों की एक गोली उनके सिर को भेदते हुए पार निकल गई। इसके बावजूद उन्होंने अनन्य साहस दिखाते हुए ग्रेनेड से हमला कर चौथा ठिकाना भी नष्ट कर दिया और खालुबार पर कब्जा कर लिया। इस पराक्रम में बुरी तरह घायल हो गए और 3 जुलाई को ही वह वीरगति को प्राप्त हो गए।
सिग्नल आफीसर होने के बावजूद कैप्टन आदित्य मिश्र ने न सिर्फ दुश्मनों को दांत खट्टे किए बल्कि बटालिक सेक्टर के एक पोस्ट से घुसपैठियों को मार भगाया। जून 1996 में भारतीय सेना के सिग्नल कोर में कमीशन मिलने के बाद पहली पोस्टिंग अमृतसर में हुई। अक्टूबर-1998 में वह लेह में आफीसर कमांडिंग के रूप में तैनात हुए। आपरेशन विजय के दौरान वह बटालिक सेक्टर में सिग्नल आफीसर की जिम्मेदारी संभाल रहे थे। उनको एक पोस्ट पर घुसपैठियों के मौजूदगी की जानकारी मिली। उन्होंने आपनी जान की परवाह किए बिना दुश्मनों से मोर्चा ले लिया और घुसपैठियों को भागने पर मजबूर कर दिया। इसी दौरान दुश्मन की गोली उनके सीने में लगी और 25 जून 1999 को वह वीरगति को प्राप्त हो गए।
कुमाऊं रेजीमेंट में लांसनायक केवलानंद द्विवेदी छुट्टी पर घर आए थे। 30 मई 1999 को मुख्यालय से संदेश मिला कि वह अपने रेजीमेंट मे रिपोर्ट करें। बिना समय गंवाए वह उसी दिन जम्मू-कश्मीर स्थित अपनी यूनिट के लिए निकल पड़े। 4 जून 1999 को कारगिल सेक्टर की पहाडियों को दुश्मनों के चंगुल से मुक्त कराने का आदेश मिला। कारगिल की पहाड़ियों पर चढ़ाई के दौरान 6 जून की रात दुश्मनों से भीषण युद्ध हुआ। कई साथी वीरगति को प्राप्त हो गए। उन्होंने साथियों का साहस बनाए रखा और एक-एक कदम आगे बढ़ाए रखा। भारतीय सैनिकों का हौसला देख हुए दुश्मनों का साहस जवाब दे गया। इस बीच दुश्मन की एक गोली केवलानंद को लगी और वह लड़खड़ाकर गिर गए। अधिक खून बहने से वह वीरगति को प्राप्त हो गए।
गोरखा रेजीमेंट में राइफलमैन सुनील जंग को दुश्मनों से लोहा लेने का शौक बचपन से था। वर्ष 1995 में मात्र 16 वर्ष की उम्र में वह सेना में भर्ती हो गए। जज्बे के कारण ट्रेनिंग के दौरान कई मेडल जीता। छुट्टयों में घर आने पर मां से कहता था कि वहां रोज बम गिरता है। बहुत मजा आता है। ऐसा लगता है जैसे हर दिन दीवाली हो। मई 1999 में सुनील व उसके रीजीमेंट को कारगिल सेक्टर में पहुंचने का अदेश मिला। सुनील व उसके साथियों ने डटकर दुश्मनों का मुकाबला किया। सुनील ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए एक-एक करके दुश्मनों पर 25 बम फोड़े जिससे दुश्मनों के हौसले पस्त हो गए। इस दौरान एक गोली सुनील जंग के चेहरे पर लगी जो सिर को पार करते हुए निकल गई। बचपन का सपना पूरा करते हुए वह 15 मई को शहीद हो गए।
बचपन से सेना में जाने को इच्छुक मेजर रितेश शर्मा ने वर्ष 1995 में कमीशन प्राप्त किया। उन्हें मई 1999 में कारगिल के मश्कोह घाटी से दुश्मनों को भगाने का आदेश मिला। उन्होंने अपनी यूनिट 17 जाट बटालियन के साथ भीषण हमला करके घुसपैठियों को मार भगाया और चोटी पर कब्जा कर लिया। इस सफलता पर उनकी यूनिट को मश्कोह रक्षक की उपाधि दी गई। इस दौरान सात जुलाई को वह घायल हो गए थे। जख्मों की परवाह किए बिना दस दिन बाद ही वह फिर युद्ध में शामिल हो गए। कश्मीर के कुपावाड़ा सेक्टर में कई आतंकवादियों व घुसपैठियों को मार गिराया। 25 सितम्बर को वह जख्मी होकर 200 मीटर गहरी खाई में गिर गए। उन्हें सेना के उत्तरी कमान अस्पताल में भर्ती कराया गया। लगातार 11 दिनों तक मृत्यु से संघर्ष किया। उन्होंने 6 अक्टूबर 1999 को वीरगति प्राप्त किया।