प्रसन्न रहना है तो पुत्र पुत्रियों आदि से भी स्वार्थ रहित होकर रहें…
प्रसन्न रहना है तो पुत्र पुत्रियों आदि से भी स्वार्थ रहित होकर रहें अपने कार्य स्वयं करते रहें जो न हो पाये उसके लिये ही किसी पर आश्रित रहें जो जितना कर दे उतने में प्रसन्न रहें न करने पर भी ख़ुश रहें ज्ञानार्जन करते रहें और अपने अनुभव में वृद्धि करते रहें और यथासंभव ज्ञान और अनुभव से उचित मदद करते रहें सुखी जीवन का रहस्य…. एक बार यूनान के मशहूर दार्शनिक सुकरात भ्रमण करते हुए एक नगर में गये वहां उनकी मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से हुई,दोनों आपस में काफी घुलमिल गये वृद्ध सज्जन आग्रहपूर्वक सुकरात को अपने निवास पर ले गये भरा-पूरा परिवार था उनका घर में बहु-बेटे पौत्र-पौत्रियां सभी थे सुकरात ने बुजुर्ग से पूछा आपके घर में तो सुख-समृद्धि का वास है वैसे अब आप करते क्या हैं इस पर वृद्ध ने कहा अब मुझे कुछ नहीं करना पड़ता ईश्वर की दया से हमारा अच्छा कारोबार है जिसकी सारी जिम्मेदारियां अब बेटों को सौंप दी है घर की व्यवस्था हमारी बहुएं संभालती हैं इसी तरह जीवन चल रहा है यह सुनकर सुकरात बोले किन्तु इस वृद्धावस्था में भी आपको कुछ तो करना ही पड़ता होगा आप बताइए कि बुढ़ापे में आपके इस सुखी जीवन का रहस्य क्या है वह वृद्ध सज्जन मुस्कराये और बोले मैंने अपने जीवन के इस मोड़ पर एक ही नीति को अपनाया है कि दूसरों से ज्यादा अपेक्षाएं मत पालो और जो मिले उसमें संतुष्ट रहो मैं और मेरी पत्नी अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने बेटे बहुओं को सौंपकर निश्चिंत हैं अब वे जो कहते हैं वह मैं कर देता हूं और जो कुछ भी खिलाते हैं खा लेता हूं अपने पौत्र पौत्रियों के साथ हंसता-खेलता हूं मेरे बच्चे जब कुछ भूल करते हैं, तब भी मैं चुप रहता हूं मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता पर जब कभी वे मेरे पास सलाह-मशविरे के लिये आते हैं तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखते हुए उनके द्वारा की गई भूल से उत्पन्न् दुष्परिणामों की ओर सचेत कर देता हूं अब वे मेरी सलाह पर कितना अमल करते हैं या नहीं करते हैं, यह देखना और अपना मन व्यथित करना मेरा काम नहीं है वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, मेरा यह आग्रह नहीं होता परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं तो मैं चिंतित नहीं होता उस पर भी यदि वे मेरे पास पुन: आते हैं तो मैं पुन: नेक सलाह देकर उन्हें विदा करता हूं बुजुर्ग सज्जन की यह बात सुनकर सुकरात बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने कहा इस आयु में जीवन कैसे जिया जाये यह आपने बखूबी समझ लिया है…
अंतिम स्वांस तक दो ऋण बचे रहते हैं ,देव ऋण और ऋषि ऋण देवता अध्यात्म ज्ञान और धर्माचरण से प्रसन्न होते हैं और ऋषि उस ज्ञान को स्वार्थरहित भावना से प्रसारित करने से अतः ज्ञानार्जन करते रहें और अपने अनुभव में वृद्धि करते रहें और यथासंभव ज्ञान और अनुभव से उचित मदद करते रहें आर्थिक ज़रूरतों के लिये अपने वृद्धकोष का इस्तेमाल करें
प्रसन्न रहना है तो पुत्र पुत्रियों आदि से भी स्वार्थ रहित होकर रहेंअपने कार्य स्वयं करते रहें जो न हो पाये उसके लिये ही किसी पर आश्रित रहें जो जितना कर दे उतने में प्रसन्न रहें न करने पर भी ख़ुश रहें हमेशा आस की जगह सन्यास भावना को मन में रखें…