कैसे होने चाहिए शिक्षक, अभिभावक और विद्यार्थी ? – एक विचार
सारांश कनौजिया संपादक मातृभूमि समाचार
शिक्षक दिवस क्यों मनाया जाता है? यह बात अधिकांश पाठकों को पता ही होगी। किन्तु क्या सिर्फ शिक्षक दिवस मनाकर, अपने प्रिय शिक्षकों का सम्मान कर इसे पूर्ण मान लेना चाहिए? मेरा मानना है कि अब न वैसे शिक्षक रहे और न ही उन्हें हमेशा याद रखने वाले विद्यार्थी। अभिभावकों को भी अब शिक्षकों पर वो आस्था नहीं रही, जो पहले हुआ करती थी। अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं अपने कुछ अनुभव आपके सामने रखना चाहता हूँ।
बात सिर्फ 2 से 3 दशक पहले की है। तब आज की तरह पढ़ाई के लिए ऑनलाइन व्यवस्था कम ही हुआ करती थी। आधुनिक पढ़ाई के अन्य माध्यम जैसे कंप्यूटर आदि भी न के बराबर थे। इंटरनेट की मात्र कल्पना ही की जा सकती थी। ऐसे समय में पढ़ना और पढ़ाना दोनों ही कठिन होता था। इसके बाद भी शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य एक आत्मीय सम्बन्ध होते थे, ये रिश्ता मित्र का नहीं बल्कि माता-पिता और संतान के जैसा होता था। मित्र कई बार गलत बात में भी साथ दे देते हैं लेकिन अच्छे अभिभावक हमेशा जो सही हो वही कहते और करते हैं। मैंने 12वीं तक लगभग 12 स्कूल-कॉलेज बदले थे, इनमें कुछ हिन्दी और कुछ अंग्रेजी माध्यम के थे। इसलिए कह सकता हूं की मेरा अनुभव स्कूलों के बारे में काफी है।
मेरा अनुभव शिक्षकों के बारे में लगभग अच्छा ही रहा है। ऐसा नहीं है कि सभी शिक्षक प्रेम भरा व्यवहार करते थे। पढ़ाई में अच्छा नहीं होने के कारण दंड भी कई बार मिला या यों कहें कि अक्सर ही मिलता था। बात सन 1995-96 की है। हमारे अंग्रेजी के शिक्षक पतली सी छड़ी से गलती होने पर मारते थे। भूगोल जो कई बार गोल लगती थी, उसके शिक्षक मोटा सा डंडा लेकर गलती की सजा देते थे। एक बार स्कूल की गलती से मेरी परीक्षा की उत्तर पुस्तिका कहीं खो गई। स्कूल वालों ने बोल दिया कि मैंने परीक्षा ही नहीं दी है। मेरे पिता ने स्कूल वालों की बात पर विश्वास कर लिया। मैं अपनी परीक्षा देकर घर आने पर उसकी जानकारी अपनी माता जी को देता था। यही वजह थी कि माता जी के कहने पर जांच की गई और मेरा पक्ष सही निकला। मेरे पिता जी निकट की कताई मिल में बड़े अधिकारी थे लेकिन उन्होंने अपने पुत्र का साथ देने की जगह शिक्षकों का साथ दिया।
यह घटना बताने का तात्पर्य यह है कि अभिभावक अपनी संतानों की सही-गलत हर बात को जानते हैं। यदि उन्हें लगता है कि शिक्षक या स्कूल सही है, तो उनका ही साथ देना चाहिए न की अपनी संतान का। अपनी ताकत शिक्षकों को धमकाने के लिए प्रयोग नहीं करनी चाहिए। कई बार शिक्षक डंडे का प्रयोग या अन्य कोई प्रयास विद्यार्थियों को सुधारने के लिए करते हैं, उसे हर बार मानव क्रूरता मानना ठीक नहीं है। यदि अभिभावक शिक्षकों पर विश्वास करेंगे तो विद्यार्थियों को भी उनका सम्मान करना ही पड़ेगा। ध्यान रहे ज्ञान झुककर ही ग्रहण किया जा सकता है। यदि हम गुरु से बराबरी करने का प्रयास करेंगे, तो कभी भी ज्ञान प्राप्त नहीं होगा।
ऐसा नहीं है कि सभी शिक्षक अच्छे ही होते हैं। शिक्षक और विद्यार्थियों के रिश्ते शर्मशार भी हुए हैं। अभिभावक और संतान के संबंधों को भूलकर प्रेम प्रसंगों की चर्चा कई बार हुई है। संवैधानिक रूप से यह ठीक है, लेकिन नैतिक रूप से गलत। यद्यपि हम यहां पर किसी को ऐसे लोगों के विरुद्ध कानून अपने हाथ में लेने का समर्थन नहीं करते हैं। इसके अलावा कुछ शिक्षक विद्यार्थियों को अपना मित्र बना लेते हैं। मुझे भी ऐसे एक-दो शिक्षक मिले, जो हर प्रकार की बात मुझसे बताते थे, चाहें वो व्यक्तिगत जिंदगी से ही जुड़ी हुई क्यों न हो? वो अच्छे शिक्षक थे, बस अंतर सिर्फ इतना था कि हम कॉलेज में उनसे हर बात अधिकारपूर्वक कहते थे और बाकी विद्यार्थी अनुरोधपूर्वक। दूसरा तरीका अधिक उपयुक्त है।
एक और बात है जो मैं यहां कहना चाहता हूं। स्वतंत्रता के बाद हमें जो शिक्षा दी जा रही थी, वह हमें नौकर तो बनाती है, लेकिन अच्छा व्यक्ति नहीं। कुछ समय बाद यह शिक्षा सिर्फ अच्छे नंबर लाने तक ही सीमित हो गई। इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता है कि किताबों में जो लिखा है, वह कितना समझ में आ रहा है, सिर्फ याद कर लो, परीक्षा पास कर लो, फिर भूल जाओ। हमारी शिक्षा ऐसी हो जो हमें अच्छा व्यक्ति बनाए, सिर्फ नौकर नहीं। शिक्षा में किताबों के साथ ही शोध पर विशेष ध्यान देना बहुत जरुरी है। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को भी विशेष कोष की व्यवस्था करनी चाहिए। शोध सिर्फ वैज्ञानिकों या पी.एचडी. करने वालों तक सिमित नहीं रहना चाहिए। यदि कोई हाईस्कूल करने वाला विद्यार्थी भी शोध करना चाहता है, तो उसे भी आवश्यक धन उपलब्ध कराने की व्यवस्था होनी चाहिए। तभी अच्छे विद्यार्थी बनेंगे, जो आगे चलकर अच्छे शिक्षक भी बन सकते हैं। सारांश कनौजिया संपादक मातृभूमि समाचार