मेरी पहली यात्रा…!

मेरी पहली यात्रा…!

मेरी पहली यात्रा की शुरुआत से पहले मैंने मेरे अंदर के अपने मूल तत्व से बहुत कुछ विचार विमर्श किया, बहुत से पारखी बिंदुओं के तल में जाकर मैंने सतह के भाव को स्पर्श किया और अन्ततः निकल पड़ा यह जानने देखनें कि, भीतर से बाहर की भूमि पर मेरे कदम मुझे प्राथमिक संदेश, प्राथमिक शोध के बाद किस रूप में अंदर देख सकेंगे,
मेरी पहली यात्रा में मैंने देखा कुछ सीधी, आड़ी- टेढ़ी उन सड़कों को जो ऐसे प्रतीत हो रहीं हैं जैसे मेरे गाँव के गंजूबाबा के दिमाग़ की व्यवस्था, जो कभी भी बदल सकती है और खास बात यह की बदलने की दर मौसम के मिजाज़ को भी ठेंगा दिखा सकती है, हुर्र करके लुंगी खींच सकती है।
यात्रा में पहले कदम अक्सर ही गाँव में पड़ते हैं, भले ही आप तंजानियां में हों या अजरबैजान में, ऐसा इसलिए भी कि गाँव का गणित रमानुजम् से भी हल न हो सका, भौतिकी वरामिहिर् से न हो सकी..!
गाँव का विज्ञान ऐसा है कि यहाँ चौराहे से चाँद तक जाना बहुत आम है और वापस आना उससे भी ज्यादा आम, मुझे आश्चर्य होता है की अमेरिकी स्पेस एजेंसी आज तक यहाँ से कुछ सीख क्यूँ न सकी।
यात्रा में अगला कदम वैसा ही रहा है जैसे बिना किसी प्रशिक्षण और संसाधन के” किलिमंजारो” पर चढ़ना। देख के ही हाथ पैर सुन्न पड़ने लगे। ऐसा लगा मैं बहुत बौना हूँ, मेरे पाँव कितनें छोटे और डरे से हैं, गला जो अबतक गाँव से भरकर लौटा था मानो एकाएक मरुस्थल हो गया हो, भला पहली यात्रा में ही ऐसा अनुभव किसे हुआ होगा और अगर हुआ भी हो तो वो क्या चढ़ चुके होंगे, चोटी पर होंगे या मर गए होंगे।
वाह रे यात्री… यह मन भी कितना फिसलनें वाला है कब फिसल कर सवालों के गड्ढों में गिर जाता है पता ही नही चलता, हालाँकि, यात्रा है तो आगे चलना ही पड़ेगा, चढ़ना पड़ेगा, देखना पड़ेगा सबकुछ …..
सबकुछ से पहले सड़क के दोनों तरफ़ कई -कई कुत्तों के झुंड साथ में कुछ शायद दो-तीन, आठ या दस साल के कुछ पूरे नंगे कुछ अर्धनग्न रोते – हँसते, सोते, चिल्लाते धूल फांकते बच्चे इनमें से कुछ जो नाक से बहती तेज धार पर बार बार हाथों के बांध बनाते और असफ़ल रहते वैसे जैसे सरकार की कोई योजना।
इनमें से कुछ बच्चे चूल्हे की आग से कम भूंख की आग से ज्यादा झुलसे नज़र आते,मुझे पता करनें पर यह उत्तर मिला कि इनमें कुछ ऐसे हैं जो शानदार तैराक हैं, पर दुर्भाग्य है कि ये अक्सर रोटी की महक में डूबकर मर जाते हैं।
मैंने अपनें बाएँ ओर बैठी कुछ खड़ी महिलाओं को गौर से देखा तो वो भागी हुई आईं , अरे बाबू कुछ देदो…. भगवान भला करेगा…. हे बाबू….
मैं सकपकाया और जल्दी से जेब से कुछ पैसे निकाले, उन्हें देते हुए पूछा… आप लोग यहीं रहते हैं?
जवाब था हाँ…!
कुछ दूर जाकर मैं बैठ गया ,
मेरे सामनें बहुत कुछ ऐसा था जो शायद वैसे पेश आ रहा हो जैसे कोई कठिन चित्रखंड पहेली हो , मेरी यात्रा के पहले पड़ाव में ही यह सब..
यात्रा में उठे अगले कदम बहुत भारी थे, मैंने बगल में खड़े एक रिक्शे वाले से पूछ लिया.. ये लोग यहाँ कैसे रहते हैं? उसनें मेरी तरफ ऐसे देखा मानों मैंने उससे उसकी किडनी माँग ली हो..
अरे भइया का बताएं यहाँ हम ख़ुद साला आज सवारी नाही पायेन…
मैंने वापस कोई सवाल नहीं किया और आगे बढ़ गया, शायद उसकी अपनी व्यथा थी और उसे कोई दिलचस्पी नही की कोई,क्यूँ, कहाँ और कैसे…
यात्रा के इन पड़ावों के बीच मेरी नज़र बूढ़ी अम्मा पे जा टिकी जो सड़क किनारे सब्जियां बेच रही थी, कुछ हरी सब्जियों पर पानी डालते हुए उनकी नजर मुझ पर पड़ी और झट से हट भी गयी ,मैं अब भी उन्हें देख रहा था, उनकी उम्र यही कोई सत्तर के करीब होगी बाल पूरे

मैं सोचता हूँ कौन क्या देख रहा, किसकी आँख कितनी खुली है, कौन ऐसा है जो पैदा होने के बाद से आज तक आँख न खोल सका, और कुछ तो ऐसे हैं जिनके नेत्र खुले तो सीधे ईश्वर बन बैठे…
इन आदम जाति के ईश्वरीय रूपों की चमत्कारी आँखे देख लेती हैं भूत भविष्य और वर्तमान, मैं सोचता हूँ की क्या ये आँखे भला यह नहीं देखती होंगी जो सबसे साफ़ दिखता है पर घनघोर अँधेरे से ढक दिया जाता है, अभी कुछ दिन पहले ही तो बाबा भूतेस्वर नाथ नें दावा किया की वो कैंसर जैसी घातक बीमारी का इलाज़ एक फूँक मार कर कर सकते हैं ,अपना मजीरा खनका के सीधे प्रकृति के किसी भी विमा से कभी भी वार्तालाप कर सकते हैं,सूरज को ठंडा- गर्म कर सकते हैं ,चंद्रमा को चार बातें सुना सकते हैं, तारों की जगह बदल सकते हैं यहाँ तक की दावा करते हैं की तुम बस झाड़ू की दिशा बदलो तुम्हारी दशा बदल जायेगी , मैं नहीं जानता की झाड़ू की दिशा बदलनें वालों का जीवन कितनें कोण बदला होगा पर यह जरूर जानता हूँ की इन दायीं- बायीँ आँखों की चक्की में इस आधुनिक दौर का मानुष पिस रहा है,और लोग उसे पिसते हुए देख रहे हैं , आज का समाज इतना देख सकता है..वो किसी मौलाना के बिजली मीटर पर जम- जम लिखनें की बात को आत्मसात करके उम्मीद में बैठ जाता की इस माह बिजली का बिल कम आयेगा, भला ऐसा कैसे हो सकता है बिजली का जम जम से क्या संबंध है और अगर कोई संबंध है तो,टेस्ला कौन हैं?
मानव मस्तिष्क में सवालों की उपज मस्तिष्क भूमि की उर्वरता पर निर्भर है, भला हम गोबी मरुस्थल पर अमेजन वर्षा वन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ; और कर भी कैसे पाएं,अगर उस करनें की दिशा में जरा सा भी कदम बढ़ाया तो हमारी आस्था से सामाजिक उल्कापिंड न टकरा जायेगा, चूर – चूर न कर देगा,
सामाजिक उल्कापिंड का डर ही तो सामाजिक विकारों के संभोग का कारण है ,इनकी पैदाइश कितनें जहरीले विचारों वाले होते हैं, कितनें अविद्याग्रस्त पर सब जाननें का दावा करनें वाले ।
वे जानते हैं अमेरिकी राष्ट्रपति के भारतीय मोह का प्रमुख कारण , वे जानते हैं रूस और भारत के संबंध, वे जानते हैं मुसलमान और हिंदू के खून के अलग- अलग रंगों को….!

~ ए. वर्धन
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यात्रा का अगला भाग,शेष..!

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