शिमला के वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण भानु का विश्लेषण-
आप मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम नहीं थे कि देश ने अचानक सिरमाथे उठा लिया। यह तो मनमोहन सिंह सरकार की नालायकी थी कि अचानक लोगों का ध्यान आपकी ओर आकर्षित हो गया। मनमोहन सिंह “अनगिनत” दलों की सरकार केंद्र में चला रहे थे। असल में वे दल नहीं थे, बल्कि दलदल थे जिनके पेट करोड़ों-अरबों के घोटालों के बाद भी नहीं भर रहे थे। उनके मुंह राक्षसी सुरसा के मुंह की भांति खुलते ही गए। ऐसे में लोगों को विकल्प के तौर पर आप दिखाई दिए थे। जनता ने कोई चारा न देखकर आपको अपना लिया। लेकिन आप तो आदमी से ख़ुदा बन बैठे।
इतना समझ लीजिए कि आप कभी लोकप्रिय थे ही नहीं, बल्कि महज एक विकल्प थे। विकल्प तो आते-जाते रहते हैं। अब कपड़े उतर जाने के बाद आपके जाने के द्वार भी खुलने लगे हैं। अभी समय है। सम्भल सकते हैं तो सम्भल जाइएगा।
असत्य और “चालूपंथी” की उम्र बहुत छोटी होती है। भोले-भाले लोगों को ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ता। आपने देश के राजनीतिक खेतों में जो बोया था, यूपी में उसके अंकुर फूट पड़े हैं। इसीके साथ यह कहावत कि “जो बोओगे वही काटोगे” चरितार्थ हो गई है। दम्भ तो सुदर्शन चक्र का भी नहीं रहा। जो दम्भी हो जाता है, उसे न श्रीराम बख़्सते हैं ना श्रीकृष्ण। बाहर-बाहर से भगवानों की चाटुकारिता करके इन्द्रासन प्राप्त नहीं होता ना कोई कालजयी हो जाता है। ऐसा होता तो दुनिया में आज कोई एक भी वह नास्तिक जीवित न दिखता जो हमेशा परमेश्वर के अस्तित्व को ख़ारिज करता रहता है। विष बोया है तो आपका उर्वरक खेत अमृत नहीं उगलेगा। उसे तो वही उगलना है जो आपने बोया था। यही विधि का विधान है।
यह राजनीति है। राजनीति में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। यह निष्ठुर है।अत्याचारी है। क्रूर है। विषकन्या है। जो विष भरी सियासत करेगा, वह एक दिवस मारा जाएगा। जो सुनामी में समंदर की गहराई में उतरेगा उसका डूबना निश्चित है। राजनीतिक लहरें आती-जाती रहती हैं। किसीको किनारे ले जाकर पटक जाती हैं तो किसी को भंवर में उलझा कर डूबा देती है। राजनीतिक लहरों का क्या है। ये कोई सीबीआई, ईडी, आईटी या एनसीबी थोड़ी है कि आपके इशारों पर भांगड़ा डालती रहे और हटे ही नहीं।