मिर्जापुर में हम आमतौर पर देखते हैं पूर्वांचल या अन्य छोटे शहरों और गांवों में होने वाले पावर को लेकर संघर्ष को हम देखते हैं धीमें स्वर में बड़ी बातें और बड़े काम कर जाने वाले बाहुबली कालीन भैया को। पावर के बल और लालच में बौराए मुन्ना को। हम देखते हैं आम लड़को की तरह लीबीर लीबीर करने वाले गुड्डू बबलू को पावरफुल बनते हुए। हम देखते है कि कैसे बंदूक के बल पर मिलता है फुल इज़्ज़त। पता नही लेकिन अनगिनत दृष्टिकोण, अनगिनत परत हैं इस मिर्जापुर में।
लेकिन कुछ ऐसे पहलू और भी हैं जो फिल्मों या वेब सीरीज के विशाल समतल मैदान से अलग मिर्जापुर को बैठाती है उस मैदान में केंद्र में पीपल के नीचे बनी हुई चबूतरे पर। धाक और रसूख से भरी चौपाल की तरह जिसके मुखिया हैं सर पर दर्शकों के उम्मीद की बड़ी सी पगड़ी बांधे हुए कालीन भैया। बड़े बड़े स्टार को चमक को फीकी करते अपनो मूछों पर ताव देते हुए कालीन भैया। “हम मालिक है इस शहर के”।
मिर्जापुर में कई अनमोल तोहफ़े हैं, नगीने हैं। धुंधली पड़ चुकी यादों को, सपनों को जगा जाती है यह कहानी।
इसमें कोई भव्य और खोखला शहर नही है जो कृत्रिम रौशनी से उधार मांगी हुई रौनक से थिरकने के नाम पर लड़खड़ाता है। हिंदी सिनेमा गांवों को लेकर एक पूर्वाग्रह से ग्रसित है जिसमे गांव के लोग बेवकूफी की हद तक सीधे दिखाए जाते हैं, जहां ठहाकों के तले एक बेचारगी पसरी होती है।
मिर्जापुर ने इसे नकार कर दिखाया है। छोटे शहरों और कस्बों में कम संसाधनों, कम तड़क भड़क के बावजूद एक चीज़ बेहिसाब और प्रचूर है वह है अल्हड़ जीवन, जो कि असल मे ज़िन्दगी है और जिसके लिए सटीक शब्द है ‘भोकाल’।
इसमें कॉलेज के नाम पर ऐसा कॉलेज है जिससे करोड़ों लोग कनेक्ट करते हैं। वो कॉलेज जिसमें चाय समोसे मिलते हैं। जिसमें शिक्षक आम शिक्षक है। जहां लड़का लड़की को सिनेमा देखने ले जाना चाहता है। जहां लड़का लड़की अकेले में ना मिलकर अपने एक एक दोस्त लेकर मिलते है डेट पर। हमारे यहां तो शादी तक मे सहबोला साथ जाता है। ये बहुत दिन बाद देखने को मिला नही तो कॉलेज के नाम पर मॉडल्स से भरी हुई कोई पार्टी स्पॉट दिखाया जाता रहा है और शिक्षक के नाम पर कोई उलूल जुलूल हरकत करता हुआ जोकर। मिर्जापुर में कॉलेज हमें किसी न किसी पॉइंट पर हमें हमारे कॉलेज की सीढ़ियों और गलियों में लेकर जाता है। हां, हमारे अपने कॉलेज के।
मिर्जापुर में हर पात्र एक प्रतिनिधि है। समाज का प्रतिनिधि। हर दर्शक किसी न किसी पात्र में कही न कही ख़ुद को देख लेता है। स्वीटी, गजगामिनी गुप्ता, गुड्डू बब्लू, वकील साहब, मुन्ना, कंपाउंडर, बीना त्रिपाठी, कालीन भैया या हर अन्य कलाकार।
मिर्जापुर हमसे और आपसे कह जाती है कि सिर्फ ABCD से काम नही चलेगा। सिनेमा को भी जाना पड़ेगा अपने जड़ों में। याद रखना पड़ेगा क ख ग घ को भी। वरना महंगा पड़ेगा। क ख ग घ भूलना मतलब अपने अंत की तरफ बढ़ना।
सत्ता, पावर, इज्जत की महत्वकांक्षा की विशालता को एक रूप देना हो तो वह रूप होगा कालीन भैया का। चौराहे पर पूर्वजों की मूर्ति, पूरे क्षेत्र में सबसे यूनिक गाड़ी, साये की तरह रहता मक़बूल, पुश्तैनी कोठी, कड़कदार कुर्ता, गमछा और ठीक बगल में नालायक बेटे को अपनी गद्दी के लायक उत्तराधिकारी बनाने का जतन। धागों के अनगिनत परत को बारीकी से बुनना पड़ता है तब कही जाकर बनता है कालीन। कालीन भैया एक दौर हैं, रुतबा हैं नाकि महज एक नाम।