दरवाजा – कविता

दरवाजे “

पहले दरवाजे नहीं खटकते थे…
रिश्ते -नातेदार
मित्र -सम्बन्धी
सीधे
पहुँच जाते थे…
रसोई तक

वहीं जमीन पर पसर
गरम पकौड़ियों के साथ
ढेर सारी बातें
सुख -दुःख का
आदान -प्रदान

फिर खटकने लगे दरवाजे…
मेहमान की तरह
रिश्तेदार
बैठाये जाने लगे बैठक में..
नरम सोफों पर

कांच के बर्तनों में
परोसी जाने लगी
घर की शान…

क्रिस्टल के गिलास में
उड़ेल कर …
पिलाई जाने लगी.. हैसियत.

धीरे -धीरे
बढ़ने लगा स्व का रूप..

मेरी जिंदगी … मेरी मर्जी
अपना कमरा..
अपना मोबाइल ..
कानों में ठुसे..द्वारपाल..
लैपटॉप..

पर कहीं न कहीं
स्नेहपेक्षी मन….

प्रतीक्षा रत है…
किसी अपने का..!!!

पर अब…..
दरवाजे नहीं खटकते हैं ..!!!

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