गांव आए तो अपने हो गए बेगाने

कोरोना काल में बुन्देलखंड के प्रवासी मजदूरों पर आई विपदा ने उनका जीवन दुखद बना दिया है। जिन कंपनियों और उद्योगों को काम के दम पर बुलंदियों पर पहुंचाया उन्होंने संकट के समय मुंह फेर लिया। भूखों मरने की नौबत आई तो घर-गृहस्थी उठाकर गांव आ गए। नंगे पांव चलते-चलते चप्पलें घिर गईं, पांव में छाले पड़ गए। इन कष्टों के साथ जब गांव पहुंचे तो यहां अपने ही बेगाने हो गए।

41 डिग्री तापमान के बीच चिलचिलाती धूप में खेतों-बागों में खुद को क्वारंटीन किए ये लोग अपने काम खुद कर रहे हैं। छोटे बच्चों और महिलाओं के साथ आने वालों ने अपनों को तबेलों में क्वारंटीन कर रखा है। कोरोना काल के 40-50 दिन जैसे-तैसे काटकर महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात में बुन्देलखंड के बांदा जिले में काम करने वाले 50 हजार से अधिक प्रवासी मजदूरों को जब रोटी की लाले पड़े तो गांव की ओर भागने लगे। बेबस मजदूरों के पास घर आने के लिए पैसे तक नहीं थे। संकट में जत्थे हजारों मील पैदल चलने से पांव में छाले पड़ गए। गांव पहुंचे तो दोस्तों ने मुंह फेर लिया। काका काकी व दादा-दादी ने पास आने से मना कर दिया। कमासिन के गांव तिलौसा में 178 लोग पिछले एक पखवारा में गांव पहुंचे। ये सभी लोग गांव के बाहर 41 डिग्री तापमान में खेतों व तालाबों के किनारे मड़ैया डाल कर रह रहे हैं। कमलेश बताते है कि खेत में रोजाना उनकी पत्नी आती है और दूर से भोजन बनाकर चली जाती है। दोस्त बसेरे की तरफ से कन्नी काट लेते हैं।

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