वीर विनोद छाबड़ा जी की कलम से…
तनिक मिश्रा को बुला दो
कुछ दिन पहले की बात है. हमारे मित्र कॉलेज के दिनों के साथी, पड़ोसी कॉलेज के दिनों के दोस्त हैं और ड्रामा कंपनी में हम सफ़र शुक्ला जी बीमार हो गए, थोड़ा सर्दी ज़ुकाम था. अब बहत्तर की उम्र में खांसने से परेशानी तो होगी ही, खुद को भी और बाकी घर वाले भी हलकान होंगे. उस दिन रात ग्यारह बजा था. खांसी लगातार आ रही थी. नींद कोसों दूर. शुक्लाईन पास बैठी एक हाथ से छाती पर विक्स लगा रही थीं. दूसरे हाथ से सर पर बचे चंद बालों को भी सहेज रही थी. साथ-साथ ढांढ़स भी बंधाती चलती, सुबह तक सब ठीक हो जाएगा, घबराओ नहीं. बस सो जाओ किसी तरह. लेकिन शुक्ला जी की नींद कोसों गायब. खांसी बंद हो तो नींद आये. गले में फँसी बलगम निकलने का नाम न ले. बेचारे हांफने लगे. बोले, पड़ोस से मिश्रा को बुला दो. इधर शुक्लाईन घबड़ा गयी, लगता है चलाचली का टैम आ गया है, तभी तो जिगरी दोस्त को याद कर रहे हैं. उसे किसी ने बता रखा था अंतिम बेला में ऐसा ही होता है. शुक्लाईन ने बहु-बेटे को उठाया. पोते-पोतियां भी उठ गए. लगता है, दाऊ तो गियो. तमाम नाते-रिश्तेदारों को मोबाईल घनघना दिए, तुरंत ही लखनऊ के लिए निकल लो, दाऊ कुछ ही घंटों के मेहमान हैं. क्रियाकर्म उसी दिन दोपहर तक होना है. इधर शुक्ला जी कराह रहे थे, मिश्रा को बुलाओ. शुक्लाईन को मिश्रा फूटी आँख न सुहाता था. आये दिन चला आता था, बिना चाय पिए कभी गया नहीं. प्लेट में जितना बिस्कुट रखो, सब चट कर जावे. कभी दो-चार बच भी गए तो जेब में रख कर ले गया. लेकिन अब मजबूरी आ गयी. सो पोते को भेज दिया. जाओ नासपीटे मिश्रा को घसीट लाओ. न आये तो बोल देना, अंतिम दर्शन कर ले.
कुंभकरण की नींद सो रहे मिश्रा को बामुश्किल जगाया गया. मिश्रा की समझ में माज़रा बड़ी मुश्किल से आया, जब मिश्राइन ने सुनने की मशीन उनके कान में ठूंसी. मिश्रा सोचने लगा, शुक्ला को कित्ती बार उधार दिया है और कित्ता वापस किया और कित्ता बाकी है?.. मिश्राइन ने झिंझोड़ा, अब का फायदा सोचन से? जब उधार दिए थे, तभी हम टोके थे. शुक्लाईन तो एक्को पैसा नहीं ढीला करती. शुक्ल सारा पैसा सिगरेट-पान में उड़ाता है. मगर तुम देते रहते हो. बचपन की दोस्ती है, कैसे ना करि?
बहरहाल, मिश्रा ने सदरी पहनी, एक हाथ में टॉर्च और दूसरे में डंडा पकड़ा, ताकि कुत्ते न दौड़ा दें. इन गली के कुत्तों को भी मिश्रा से ख़ास बैर है. शुक्ला के घर पर भीड़ लगी थी, तमाम अन्य अड़ोसी-पड़ोसी भी जमा थे. कंडे और अगरबत्ती के इंतज़ाम करने की बात चल रही थी. एक सलाह दे रहा था, मैं तो कहता हूं, पलंग से तो अब उतार ही दो. दीया-बाती कर दो. मिश्रा के पांव तले से ज़मीन ख़िसक गयी. डूब गए, शुक्ला कल ही पूरे पूरे बीस हज़ार ले गया था. मिश्रा कमरे में घुसा तो देखा कि शुक्ला आँख बंद करके लेटा हांफ रहा था. मिश्रा ने सर पर हाथ रख कर पुकारा – सुकुल.
और शुक्ला ने धीरे धीरे खोल दीं. गला खंघारा. उठ कर बैठ गया, कौन मिसिर? अरे मुझे कुछ नहीं हुआ है. भला-चंगा हूं. हल्की खांसी है. आज सुबह से तुम आये नहीं थे, मन उदास हो रहा था. अदरक वाली चाय नहीं पी तुम्हारे साथ… और शुक्लाईन बड़बड़ाते हुए चल दीं, चाय बनाने.