नमस्कारम् 🙏
” पापा, आप इतने चुप-चुप क्यों बैठे हैं? कुछ चाहिए क्या?” पिता को उदास, आसमान को एकटक निहारते देख विपुल ने उनसे पूछा। ” नहीं बेटा, कुछ नहीं…, बस यूँ ही..।” पिता ने अनमने भाव से उत्तर दिया।उसने कहा, ” मन न लग रहा हो तो आपके फोन में गेम डाउनलोड कर देता हूँ, आप खेलते रहियेगा।” पिता ने फिर से ‘ ना ‘ कहते हुए अपनी गरदन हिला दी।
विपुल एक मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करता था।उसकी पत्नी वंदना एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका थी।दोनों का आठ साल का एक बेटा था।उसके पिता नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद अपनी पत्नी के साथ पैतृक घर में जिंदगी गुजार रहें थें।व्यस्तता बढ़ जाने के कारण बार -बार अपने घर जाना उसके लिए संभव न था,इसलिए वह माता-पिता को अपने पास ले आया था।माँ कुशल और समय के साथ एडजेस्ट करने वाली महिला थीं तो जल्दी ही शहरी जीवन-शैली में स्वयं को ढ़ाल लिया, पिता का स्वभाव शांत था, शहरी शोर-गुल उन्हें रास नहीं आ रहा था लेकिन पत्नी का साथ था तो अपने मन को समझाने में उन्हें ज़्यादा वक्त नहीं लगा।विकास की माँ सोसायटी के वरिष्ठ नागरिक मंडली की सदस्या बन गईं थीं तो अपने हर प्रोग्राम में अपने पति को साथ ले जाया करतीं थीं।घर में भी कुछ न कुछ करने में वे खुद को तो व्यस्त रखतीं ही थीं, पति का भी सहयोग लेने के बहाने उन्हें कोई न कोई काम थमा देती ताकि उन्हें अकेलापन न खले।
बीस दिनों पहले ही दिल का दौर पड़ने से विपुल की माँ की मृत्यु हो गई थी और तब से अपने जीवन संगिनी के बिछोह में उसके पिता ने खुद को एकांत कर लिया था।बच्चों के घर में रहते हुए भी वे अकेले ही बालकनी में बैठे रहते,जैसे मन ही मन पत्नी से कह रहें हों कि मुझे भी अपने साथ ले जाती।विपुल के लिए पिता का एकाकीपन असहनीय हो रहा था।उसने जब वंदना से कहा कि पापा का यूँ उदास रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है तब वंदना ने उसे एक उपाय सुझाया।
अगले दिन विपुल जब ऑफ़िस के लिए तैयार हो रहा था तो उसने बालकनी में बैठे अपने पिता से कहा, ” पापा,वंदना किचन में बिजी है, आप अलमारी से मेरी टाई निकालकर दे देंगे?” ” हाँ-हाँ बेटा, अभी देता हूँ।” कहते हुए उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे परिवार में अभी भी उनकी अहमियत है।उन्होंने जैसे ही अलमारी खोली,कपड़ों का ढ़ेर उनके ऊपर गिर पड़ा।वे उनमें से टाई खोजने लगे तो विपुल के बचपन की एक तस्वीर उनके हाथ लग गई जो विपुल ने जान-बूझकर कपड़ों के बीच में रख दी थी।फोटो देखते हुए वे पुरानी यादों में खो गए तभी पीछे से आकर वंदना ने पूछ लिया, ” पापाजी, टाई मिली?” ” अरे…वो .. मैं…” ससुर को हकलाते देख वंदना सब समझ गई थी।बोली, ” पापाजी, मैंने दो-तीन की छुट्टी ले ली है।सोचा, आज घर की सफ़ाई कर लेती हूँ।आप मेरी थोड़ी-सी मदद कर देंगे?”
“हाँ-हाँ, बताओ क्या करना है? तुम्हारी अम्मा के जिम्मे रसोई थी लेकिन साफ़-सफ़ाई का काम तो मैं ही किया करता था।” कहते हुए उनके चेहरे पर जो प्रसन्नता झलक रही थी उसे देखकर वंदना को बहुत अच्छा लगा।सफ़ाई करने के साथ-साथ वो अपने ससुर से काॅलेज़-ऑफ़िस की बातें भी पूछती जाती जिसे वे बड़े उत्साह से बताते जा रहें थें।
वंदना का बेटा भी स्कूल से आ गया, अपने दादाजी को प्रसन्न देखकर वो उनकी गोद में बैठकर कहानी सुनाने की ज़िद करने लगा।वंदना ने कहा कि कल सुन लेना, आज दादाजी थके हुए हैं, तब उसके ससुर तपाक से बोले, ” नहीं बहू ” कहकर पोते को कहानी सुनाने लगे।
दो दिन में ही विपुल के पिता को फिर से ज़िदगी से प्यार हो गया।बहू के साथ काम में सहयोग देने, पोते से साथ हँसना-खेलने और विपुल के साथ सलाह-मशवरा करने में उन्हें आनंद आने लगा।उन्हें यह भी एहसास हो गया कि उनके बच्चों को उनकी फ़िक्र है।इसलिए एक दिन रात्रि का भोजन करते समय उन्होंने बेटे से कहा कि अब बहू को भी स्कूल चले जाना चाहिए।एक शिक्षिका के कर्तव्य का पालन भी तो उसे करना है।
” लेकिन पापा,आप कहीं फिर से…. ” विपुल अपनी बात पूरी करता, उससे पहले ही उसके पिता बोल पड़े, “नहीं बेटा, अब मुझे कुछ नहीं होगा।अभी तो मुझे इसकी शादी में नाचना है।” हँसते हुए विपुल के पिता ने अपने पोते की तरफ़ देखा।
विपुल और वंदना ने जिस समझदारी व धैर्य से अपने पिता के एकाकीपन को दूर किया है, उसी तरह अगर सभी बेटे-बहू भी अपने बुजुर्गों के खालीपन को भरने का प्रयास करें,उन्हें अपनेपन का एहसास कराए तो वृद्धाश्रम जैसे अभिशाप की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
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