उर्दू पत्रकारिता के दो सौ साल पूरे …

ब्यूरो,

उर्दू पत्रकारिता ने दो सौ साल का सफ़र पूरे हो गए हैं।इस मौके पर सुबह से कई लोगों ने ज्ञान ठेला, सबको पढ़ कर हमने भी ठेलने का इरादा किया, पढ़िए…..

हमें उर्दू सहाफ़त के इतिहास भूगोल की जानकारी नहीं है।बस इतना याद है कि होश संभाला तो घर में उर्दू के दो अखबार देखे।नशेमन और नई दुनिया।दोनो ही साप्ताहिक थे।इराक़ युद्ध के दौरान मुसलमानों के बीच नई दुनिया ने ख़ासी मक़बूलियत हासिल की।

पिछले 3 दशक में मेरी नज़र से जितने भी उर्दू अख़बार गुज़रे हैं उनमें मुंबई के उर्दू टाइम्स को छोड़ कर सबके सब बकवास और रद्दी हैं।किसी भी अख़बार में पढ़ने लायक़ कुछ नहीं होता।गांव में कुछ बूढ़े ,ठेले और मदरसे से निकले लोग न हों तो इन अख़बारों को खरीददार मिलना भी मुश्किल है।

उर्दू और उर्दू अख़बारों को मुसलमान अपनी मिल्कियत समझते हैं।हिंदू भी उर्दू को मुसलमानों से जोड़ कर देखते हैं।जबकि ज़ुबानों का कोई मज़हब नहीं होता।उर्दू के प्रमुख अख़बारों की बात करें तो ज़्यादातर के संस्थापक हिन्दू हैं।जंग ए आज़ादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अख़बार ‘क़ौमी आवाज़ ‘ को 1937 में पण्डित नेहरू ने शुरू किया था।

मुंबई से लेकर यूपी तक उर्दू के सबसे बड़े अख़बार कहे जाने वाले ‘ इंक़लाब ‘ के मालिक कानपुर के गुप्ता जी हैं।वही गुप्ता जी जो ‘ दैनिक जागरण ‘ चलाते हैं।रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा सुब्रत राय ने शुरू किया और बनारस से निकलने वाले ‘आवाज़ ए मुल्क ‘ के संस्थापक बाबू भूलन सिंह हैं।हमारे जौनपुर शहर से भी उर्दू का एक अख़बार ‘ जवां दोस्त ‘ प्रकाशित होता है।इस अख़बार को भी जौनपुर के किसी धन्नासेठ मुसलमान ने नहीं बल्कि कैलाश नाथ विश्वकर्मा ने शुरू किया था।

Khursheed Anwar Khan

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *