ब्यूरो नेटवर्क
आजादी… आज के युवा के लिए इस शब्द के अर्थ अलग-अलग हो सकते हैं। मगर आज से 75 साल पहले के युवाओं के लिए इसका सिर्फ एक अर्थ था… स्वाधीनता। इस एक शब्द के अर्थ को साकार करने के लिए दशकों की अंतहीन यातनाएं, दमन चक्र, मुकदमे-सजा-कालापानी और तमाम पाबंदियां झेलीं उस पीढ़ी ने। दौर सोशल मीडिया का नहीं था मगर सूचनाएं साझा करने के अपने तरीके थे उनके पास, संसाधन कम थे मगर जज्बे ने हर कमी को पूरा किया था। आइये जाने उस दौरान घटी कुछ घटनाएं….
बनारस के शचींद्रनाथ सान्याल को लाहौर, मेरठ और 1915 में बनारस कॉन्सपिरेसी के बाद कालेपानी की सजा हुई। उन्होंने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ की स्थापना की थी। जिसके झंडे तले देशभर के क्रांतिकारी एकजुट हुए थे। बनारस को अपनी कर्मभूमि बना चुके चंद्रशेखर आजाद काकोरी कांड के अगुवा थे। काशी विद्यापीठ के राजनीतिशास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. सतीश राय बताते हैं कि कम ही लोगों को पता है कि काकोरी कांड की रणनीति भी बनारस में ही तैयार हुई थी।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने अपने एक संस्मरण में लिखा कि काकोरी कांड में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह समेत ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ के दस क्रांतिकारी शामिल थे। इनके अलावा कालापानी की सजा काट रहे शचींद्रनाथ सान्याल के भाई भूपेंद्रनाथ, मन्मथनाथ गुप्त भी इस अभियान का हिस्सा थे। काकोरी कांड में रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्लाह खां के अलावा बनारस के राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को भी 17 दिसंबर 1927 को गोंडा में फांसी की सजा दी गई थी।
मन्मथनाथ उम्र में कम होने के कारण कड़ी सजा से बच गए थे। यह रणनीति बनारस में ही तैयार हुई थी। इसके पीछे तर्क भी अंग्रेजों की ‘सेडीशन इन्क्वायरी कमेटी’ की रिपोर्ट का दिया जाता है। कमेटी ने माना था कि गलियों के शहर बनारस की बनावट ऐसी थी कि यहां गोपनीय संगठनों का जाल आसानी से फैलाया जा सकता था। काकोरी कांड में सरकार की तरफ से बनारस के ही बनर्जी नामक एक व्यक्ति ने पैरवी की थी। क्रांतिकारियों ने उससे भी बदला लेने की ठानी थी और 1928 में एक रोज दिन के वक्त मणींद्रनाथ बनर्जी ने उन्हें गोली मार दी थी।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन
9 अगस्त 1942, व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन के दो बरस बीतने के बाद महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का शंखनाद किया। गांधी जी का आह्वान बनारस भी आ पहुंचा और यहां के लोग जैसे तैयार बैठे थे महात्मा की एक आवाज पर घरों से बाहर निकलकर विदेशी शासन के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए। युवाओं ने कचहरी के मुख्य भवन से यूनियन जैक उतारकर तिरंगा लहरा दिया तो महिलाएं भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ भीड़ में शामिल हो गईं। शहर में पांच जगह ब्रिटिश सिपाहियों ने गोली चलाई मगर हर गोली के जवाब में युवाओं ने भारत छोड़ो का नारा लगाया।
अगस्त क्रांति दिवस पर महात्मा गांधी ने देश को ‘करो या मरो’ का नारा दिया। ब्रिटिश शासन भी आंदोलन को दबाने के लिए तैयार था। लगभग सभी बड़े नेताओं को सतर्क होने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया। बनारस में डॉ. संपूर्णानंद, श्रीप्रकाश, रामसूरत मिश्र, रघुनाथ सिंह, रामनरेश सिंह समेत तमाम बड़े जननेता 9 अगस्त को बंदी बना लिए गए। अंग्रेजों ने काशी विद्यापीठ और बीएचयू पर ताला चढ़वा दिया ताकि कोई भी युवा आंदोलनकारी वहां से निकलकर जुलूस में शामिल न हो सके। मगर आंदोलन की बिगुल बज चुका था और जनता इसमें स्वत:स्फूर्त जुड़ने लगी थी। भगवानपुर निवासी जोड़े सरदार की अवस्था अभी 95 वर्ष के ऊपर है। वह 80 साल पुराने इस आंदोलन एकमात्र जीवित सदस्य हैं। वह बताते हैं कि शांतिपूर्ण आंदोलन में भी गुरिल्ला नीति अपनाई जाती थी। शहर के एक कोने में बड़ा जुलूस निकलता था ताकि पुलिस का ध्यान उधर लग जाए और दूसरी तरफ आंदोलनकारी तय की गई रणनीति पर काम कर जाते थे।
उस दिन भी यही हुआ। दशाश्वमेध स्थित चितरंजन पार्क में हुजूम उमड़ने लगा। दूसरी तरफ एक टुकड़ी कचहरी की तरफ बढ़ गई। फोर्स को बरगलाने के लिए उन्होंने ‘पुलिस हमारे भाई हैं’ का नारा लगाया और कचहरी के मुख्य भवन पर चढ़ गए। रस्सी के सहारे ऊपर चढ़कर यूनियन जैक उतारा और तिरंगा फहरा दिया। पुलिस ने वहां लाठियां चलाईं। इसके बाद पूरे शहर में अलग सा उत्साह दौड़ गया। कई जगहों पर लोगों ने बिजली और टेलीफोन के तार काट डाले और खंभे उखाड़ दिए।
जोड़े सरदार बताते हैं कि इधर चितरंजन पार्क से जुलूस आगे बढ़ा तो पुलिस ने फायरिंग कर दी। गोलीकांड में चार लोग मारे गए। इतिहास की किताबों में इनके नाम शहीद काशी प्रसाद, विश्वनाथ, हीरालाल शर्मा और बैजनाथ मेहरोत्रा के रूप में दर्ज हैं। लगभग 12 लोग घायल भी हुए थे। पता चला कि इस दिन पुलिस ने शहर में दशाश्वमेध समेत पांच जगह चेतगंज, सोनारपुरा, कैंट, तेलियाना क्रासिंग पर गोलियां चलाईं। पूरे जिले में 25 से ज्यादा जगहों पर फायरिंग और लाठीचार्ज किया गया। जोड़े सरदार के झुर्रीदार चेहरे पर यह बताते हुए मुस्कुराहट तैर जाती है। वह कहते हैं कि ‘अब ओनहन से सम्हरे वाला थोड़े रहल, सबके लग गयल कि ई देस अब आजाद होकर रही…’।
नमक सत्याग्रह : पांच रुपये तक बिकी थी स्वदेशी नमक की एक पुड़िया
12 मार्च 1930… यह तारीख थी जब ब्रिटिश सरकार के नमक कानून के खिलाफ महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की। साबरमती आश्रम से दांडी गांव तक 24 दिन की यात्रा शुरू हो गई। खबर बनारस भी पहुंच चुकी थी। दांडी में छह अप्रैल को नमक कानून तोड़ा गया और इसके दो दिन बाद यानी 8 अप्रैल को सिगरा के सोनिया में पहली बार नमक बनाया गया। स्वदेशी नमक की मांग ऐसी थी कि उस दौर में नमक की एक-एक पुड़िया को शहर के रईसों ने पांच-पांच रुपये देकर खरीदा था।
वरिष्ठ पत्रकार व इतिहासकार ठाकुर प्रसाद सिंह लिखते हैं कि सोनिया में गुप्त रूप से नमक का कारखाना भी बना दिया गया। हर दिन यहां एक नेता और पांच-पांच स्वयंसेवक नमक बनाने लगे। फिर इसे पूरे शहर में बेचा जाता था। 10 अप्रैल की रात अंग्रेज पुलिस ने कारखाने पर धावा बोला तो स्थानीय लोग इसे बचाने के लिए जलती कड़ाही लेकर भाग गए। 14 अप्रैल को डॉ. संपूर्णानंद समेत तमाम नेताओं की गिरफ्तारी हो गई।
उन्होंने गिरफ्तारी से पहले टाउनहाल में जन-जन से नमक बनाने का आह्वान किया। इसके बाद सन्यासी भी खुद को इस आंदोलन से अलग नहीं रख सके। 13 अप्रैल को पिंडरा बाजार में फिर कड़ाही चढ़ी। नमक बनकर तैयार हुआ तो पुलिस भी आ पहुंची। देवमूर्ति शर्मा नामक नेता के पास सारा नमक था। पुलिस ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की तो हजारों की भीड़ ने उन्हें घेरकर चक्रव्यूह जैसा तैयार कर दिया। नमक को आननफानन में लोगों में बांटा गया और प्रसाद की तरह उन्होंने इसे माथे लगाकर मुंह में डाल लिया।
इसके बाद शहर में नमक कानून तोड़ने की लहर दौड़ गई। बड़ागांव थाने के ठीक सामने लोगों ने कड़ाही चढ़ा दी और नारा लगाया ‘कहां है कानूनी सरकार, कड़ाही चूल्हे पर है तैयार’। बड़ागांव के बाद बसनी, नियार, धौरहरा और लोहता तक नमक कानून तोड़ा गया।