क्यों योगी ही हैं यूपी में बीजेपी के खेवनहार…

कोरोना काल में मायावती, अखिलेश यादव जमीन पर नहीं दिखे. मायावती कह चुकी हैं कि वे इस बार तालमेल नहीं करेंगी. अखिलेश और जयंत चौधरी का गठबंधन तय है. इसमें कांग्रेस आ जाए तो बड़ी ताकत बन सकती है. योगी (Yogi Adityanath ) के लिए फिलहाल चुनौती विपक्ष नहीं, बीजेपी के भीतर से ही है.

नई दिल्ली: 

लखनऊ के शांत पानी में लहरें पैदा कर बीजेपी (BJP) के संगठन महासचिव बी एल संतोष और वरिष्ठ नेता तथा यूपी प्रभारी राधा मोहन सिंह दिल्ली वापस आ गए. उनकी दो दिन की यात्रा को लेकर राजनीतिक हलकों में जबर्दस्त अटकलों का दौर लगा. इस दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ( UP ChiefMinister Yogi Adityanath) , उप मुख्यमंत्रियों केशव प्रसाद मौर्य (Keshav Prasad Maurya) और दिनेश शर्मा (Dinesh Sharma) से मिलने के साथ ही वरिष्ठ मंत्रियों और विधायकों से भेंट की. उनकी यात्रा का मकसद पंचायत चुनावों में पार्टी के लचर प्रदर्शन, कोरोना से बने हालात पर राज्य सरकार के कुप्रबंधन, विधायकों-सांसदों की नाराजगी और आठ महीने बाद होने वाले चुनाव की तैयारियों के लिए फीडबैक लेना था. दोनों ही नेता पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा को इस फीडबैक की जानकारी देंगे.

हालांकि दिल्ली आते ही संतोष ने ट्वीट कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कोरोना से लड़ाई के मुद्दे पर क्लीन चिट दे दी. उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की तुलना दिल्ली से करते हुए उन्होंने कहा कि पांच हफ्ते में ही यूपी में नए मामलों की संख्या में 93 प्रतिशत की कमी आई है और योगीजी ने बेहतरीन ढंग से प्रबंधन किया है. यह ट्वीट उन अटकलों को विराम लगाने के लिए काफी है जो योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व को लेकर चल रही थीं. इससे पहले, दिल्ली में बीजेपी और आरएसएस के शीर्ष नेताओं के बीच उत्तर प्रदेश के हालात को लेकर विस्तार से चर्चा हो चुकी है. संतोष और राधा मोहन सिंह की लखनऊ यात्रा उसी के बाद हुई. 

2017 में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव पीएम नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के चेहरे और नोटबंदी के मुद्दे पर जीता था. वहां कोई मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं था. योगी आदित्यनाथ को चुनाव जीतने के बाद सीएम बनाया गया. आपको बता दें कि योगी की आरएसएस (RSS) की पृष्ठभूमि नहीं है. वे कट्टर हिंदुत्व के समर्थक और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े जरूर रहे हैं लेकिन अपनी स्वयं की हिंदू युवा वाहिनी के जरिए उन्होंने पूर्वांचल में अपनी अलग पहचान बनाई. हालांकि उन्हें मुख्यमंत्री पद का दायित्व देते समय यह शर्त जरूर लगाई गई कि वे हिंदू युवा वाहिनी नाम का समानांतर संगठन नहीं चलाएंगे. राज्य बीजेपी के बाकी नेताओं के साथ उनके रिश्ते कभी मधुर नहीं रहे. खुद योगी पार्टी नेतृत्व को कभी धमका कर तो कभी पुचकार कर, अपने समर्थकों को टिकट दिलवाने के लिए जाने जाते रहे हैं.

2007 में तो उन्होंने बीजेपी उम्मीदवारों के खिलाफ पूरे राज्य में 70 उम्मीदवार खड़े करने और पार्टी तक छोड़ने की धमकी दे डाली थी. लेकिन बाद में उनके रिश्ते ठीक हुए. बीजेपी को योगी की और योगी को बीजेपी की जरुरत रही. लेकिन योगी उत्तर प्रदेश में बीजेपी का चेहरा कभी नहीं रहे. यहां तक कि सत्ता में चार साल पूरे करने के बाद भी योगी सभी बीजेपी विधायकों का समर्थन भी नहीं जीत पाए हैं. उनकी कार्यशैली को लेकर विधायकों और सांसदों की नाराजगी समय-समय पर बाहर निकलती रहती है. खासतौर से कोरोना काल में यह खुल कर सामने आई जब इन जनप्रतिनिधियों ने खुद को बेबस महसूस किया क्योंकि प्रशासन उनकी सुनने के बजाए सीधे लखनऊ से आदेश ले रहा था.  

पर हालात बदलते देर नहीं लगती. यूपी बीजेपी के नेताओं को चाहे योगी रास न आएं लेकिन वे केंद्रीय नेतृत्व की आंखों के तारे हैं. बीजेपी में पीएम नरेंद्र मोदी के बाद अगर कोई स्टार प्रचारक है तो वे योगी हैं. 2017 के बाद से हुए करीब-करीब हर चुनाव में योगी से बीजेपी ने जम कर प्रचार कराया. उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेताओं को राज्य की राजनीति से दूर कर योगी का रास्ता निष्कंटक कर दिया गया. मनोज सिन्हा, कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह जैसे ताकतवर नेता अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय नहीं हैं. बात यहां तक पहुंच गई है कि कट्टर हिंदुत्व के समर्थक खुल कर कहने लगे हैं कि मोदी के बाद योगी ही कमान संभालेंगे.

तो ऐसे में योगी को हटाने की बात कहां से आई? दरअसल, बीजेपी विधायकों का एक बड़ा तबका है जो सत्ता में हिस्सेदारी न मिलने से योगी से खार खाए बैठा है. चार साल में उन्होंने केवल एक बार मंत्रिमंडल का विस्तार किया और अब भी कई मंत्री पद खाली हैं. कई नाराज विधायक मुख्यमंत्री पर जातिवाद का भी आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं कि मुख्यमंत्री निरंकुश नौकरशाही पर लगाम कसने के बजाए उसे बढ़ावा देने में लगे रहते हैं. विधायकों को दरकिनार कर दिया गया है और अपने क्षेत्र के मुद्दों के हल के लिए उनकी कोई सुनवाई नहीं है. कोरोना काल में विधायक और मुख्यमंत्री के बीच की ये दूरी भीषण ढंग से खुल कर सामने आई जब विधायक अपने क्षेत्र के लोगों की मदद करने में लाचार साबित हुए. उन्हें डर है कि जब आठ महीने बाद वे इन्हीं लोगों के पास वोट मांगने जाएंगे तो शायद उन्हें लोगों के गुस्से का सामना करना पड़े. राज्य में कोरोना के कुप्रबंधन को लेकर बनी अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों ने आग में घी डालने का काम किया. नदियों में तैरते शव और किनारों पर दफनाई गई लाशों को लेकर भारत सरकार को भी शर्मिंदगी उठानी पड़ी है. राज्य के गांवों में कोरोना के विस्तार और टीकाकरण की सुस्त रफ्तार को लेकर भी योगी सरकार आलोचना के घेरे में आई.  

हालांकि योगी समर्थकों की दलील है कि सच्चाई इसके विपरीत है. दूसरी लहर के प्रकोप की शुरुआत में ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद ही कोरोना संक्रमित हो गए थे. वे इलाज करवाते हुए ही हर दिन कोरोना की परिस्थितियों की समीक्षा करते रहे. अधिकारियों से लगातार संपर्क में रहे. इसी दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने गांवों में तीन टी यानी टेस्टिंग, ट्रेकिंग और ट्रीटमेंट फार्मूले को कड़ाई से लागू किया जिसका असर देखने को मिला. ठीक होते ही योगी पूरे राज्य के दौरे पर निकल गए. एक महीने में 26 दिन वे लखनऊ से बाहर रहे. शहरों-गांवों का दौरा किया. यहां तक कि कोरोना संक्रमितों से भी मिले और पूछा कि उन्हें ठीक इलाज मिल रहा है या नहीं. टीकाकरण केंद्रों पर गए. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का दौरा किया जहां बड़ी संख्या में टीचिंग स्टाफ की मौत हुई. उत्तर प्रदेश ऐसा पहला राज्य था जिसने टीकों की खऱीद के लिए ग्लोबल टेंडर निकाला. तीसरी लहर को रोकने के लिए अब ऐसे अभिभावकों को टीकाकरण में प्राथमिकता दी जा रही है जिनके बच्चे 12 वर्ष से कम उम्र के हैं.  

लेकिन पंचायत चुनाव के नतीजों ने बीजेपी की नींद उड़ा दी है. योगी विरोधी बीजेपी के लचर प्रदर्शन के लिए सीधे तौर पर कोरोना के कुप्रबंधन और लोगों को मदद न मिल पाने से जोड़ रहे हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी दूसरे नंबर पर आई. अयोध्या, मथुरा और काशी में हार गई. पंचायत चुनाव में बड़ी संख्या में कोरोना से सरकारी कर्मचारियों की मौत और इलाहाबाद हाई कोर्ट की लगातार विपरीत टिप्पणियों ने योगी सरकार के खिलाफ माहौल खड़ा करने में बड़ी भूमिका निभाई है. फीडबैक लेने लखनऊ गए बीजेपी नेताओं को निश्चित तौर पर कुछ लोगों ने यह सब बातें बताई होंगी.

इसके बावजूद योगी को हटाने का सवाल ही नहीं उठता. पार्टी के पास अब उत्तर प्रदेश में उनके अलावा कोई चेहरा नहीं. असम की तरह सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात हो सकती है लेकिन चाहे-अनचाहे योगी उत्तर प्रदेश में बीजेपी का चेहरा बन चुके हैं. इसलिए सामूहिक नेतृत्व का दांव शायद काम न आए बल्कि इसके उल्टा पड़ने की भी संभावना है. पिछड़े और ब्राह्मणों की उपेक्षा बीजेपी को भारी पड़ सकती है. इस बात का एहसास बीजेपी नेतृत्व को है. शायद इसीलिए संगठन और सरकार में कुछ फेरबदल की बात चल रही है ताकि सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का संदेश जाए. इस बीच, पीएम मोदी के भरोसेमंद पूर्व आईएएस अधिकारी ए के शर्मा के वहां राजनीति में सक्रिय होने के कारण तमाम तरह के कयासों को बल मिला है. लेकिन भूमिहार शर्मा जातिगत समीकरणों में फिट नहीं बैठते. रही बात, प्रशासनिक चुस्ती लाने की तो योगी इस काम में खुद ही जुट गए हैं. केशव प्रसाद मौर्य को फिर से प्रदेश अध्यक्ष बनाने की बात का खुद मौर्य ने ही खंडन कर दिया है.

दूसरी तरफ विपक्ष की सुस्ती भी बीजेपी को संजीवनी दे रही है. कोरोना काल में मायावती और अखिलेश यादव जमीन पर नहीं दिखे. मायावती कह चुकी हैं कि वे इस बार तालमेल नहीं करेंगी. अखिलेश यादव और जयंत चौधरी का गठबंधन तय है. इसमें कांग्रेस भी आ जाए तो एक बड़ी ताकत बन सकती है जो बीजेपी को चुनौती दे सकने की स्थिति में होगी. लेकिन योगी के लिए फिलहाल चुनौती विपक्ष नहीं, बीजेपी के भीतर से ही है. यह जरूर होगा कि एंटीइंकबेंसी का मुकाबला करने के लिए बड़ी संख्या में विधायकों के टिकट काट दिए जाएं. लेकिन इससे बीजेपी की मुश्किलें कम होंगी या आसान, यह कह पाना अभी मुश्किल है. फिलहाल, जो बात कही जा सकती है, वह यही कि योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश बीजेपी में कोई विकल्प नहीं और यही बात उनके पक्ष में जाती है.

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