खुद की नहीं समाज की चिंता करने वाले बहुत कम लोग होते हैं, जिसके लिए हर तरह की लड़ाई, आंदोलन में पीछे नहीं रहते हैं। ऐसी ही शख्स हैं। शहर के जयराम नगर मोहल्ले की मालती बाल्मीकी। सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा उनके घर से कोसों दूर थी पर उनके समाज में चल रही थी। समाज की महिलाओं को मैला ढोते देख मालती विचलित हो जाती। इसके खिलाफ उन्होंने ऐसी मुहिम छेड़ी कि लगभग पूरे जिले में इस कुप्रथा की कमर टूट गई। इतना ही नहीं, इस काम से मुक्ति पाकर बाहर निकलीं महिलाओँ को मालती सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि का प्रशिक्षण दिलाकर आत्मनिर्भर भी बना रही हैं।
सरकार से खेतिहर जमीन दिलाकर इन महिलाओं को पुर्नवासित करने की लड़ाई लड़ रही हैं। हालांकि मालती के लिए सिर पर मैला ढोने के खिलाफ बिगुल बजाना आसान नहीं था मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अभियान चलाने के लिए कमर कस ली। पहले महिलाओँ के घर-घर जाकर उनके परिवार से इस बारे में चर्चा करने लगीं और लोगों में हिम्मत बंधाई। सवाल उठा कि पुश्तैनी काम छोड़ने के बाद करेंगे क्या। घर का खर्च कैसे चलेगा। इसका जवाब भी मालती के पास था। इसके सहारे उन्होंने जयरामनगर मोहल्ले से ही इस कुप्रथा के खिलाफ अभियान शुरू किया। धीरे-धीरे इनकी मुहिम पूरे जिले में गांव-गांव फैल गई और कुप्रथा खत्म होने लगी।
मालती ने बेकार हुईं महिलाओं के लिए साबड़नपुर, चुरियानी, गाजीपुर आदि गांव कस्बों में सिलाई, कढ़ाई व बुनाई आदि निशुल्क प्रशिक्षण दिलाने की व्यवस्था की, जिससे महिलाएं आत्मनिर्भर बनने लगीं। मालती ने बताया कि अभियान का असर रहा कि 2013 में सरकार ने जिले के 121 परिवारों को 40-40 हजार रुपए की मदद दी गई। अभी भी सरकार से कुप्रथा से जुड़ी महिलाओं को पांच एकड़ खेतिहर भूमि और ससम्मान पुर्नवासित कराने की लड़ाई लड़ी जा रही है। कुप्रथा के खिलाफ लाई गई क्रांति की गूंज दिल्ली तक पहुंची और मालती को 2012-13 में सी सुब्रामण्यम फेलोशिप सम्मान से नवाजा गया।