कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए 
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए 
यहाँ दरख़्तों के साए में धूप लगती है 
चलो, कहीं और चलो… उम्र भर के लिए 

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही 
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए 
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता 
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए 
– दुष्यंत कुमार

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