आखिर प्रवासी मजदूरों, छात्रों और जहां तहां फंसे तीर्थ यात्रियों की घर वापसी का फैसला सरकार द्वारा ले लिया गया जिसका बेसब्री से इंतज़ार किया जा रहा था। दिग्भ्रमित शासन ने जो कदम अब उठाया है वह 40 दिन पहले उठाया जाना चाहिये था। पर यह सरकार आपरेशन पहले करती है एनेस्थिया बाद में देती है। इससे मरीज का जो हाल होना है, आसानी से समझा जा सकता है। नोटबंदी सहित सरकार के इसी तरह के कई फैसले अवाम के लिये बेहद पीड़ा दायक रहे हैं, ये आज सभी जानते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह बात आज पहली बार कही जारही है। ऐसे लोगों की कमी न थी जो पहले ही दिन से बिना तैयारी के किये गये लाक डाउन की आलोचना कर रहे थे। खासतौर से इसलिये कि अचानक और पूर्व तैयारी के लिये गये इस तुगलकी निर्णय ने करोड़ों- करोड़ मेहनतकशों, उनके परिवार और रिशतेदारों, लाखों प्रवासी छात्रों और असंख्य पर्यटकों/ श्रध्दालुओं को पलक झपकते ही जीवन के सबसे बड़े संकट में डाल दिया था।
कोई शायद ही भूला हो कि चीन के बुहान से उद्भूत कोविड- 19 ने जनवरी के अंत तक यूरोप अमेरिका और अन्य अनेक देशों में दस्तक दे दी थी। भारत में भी यह फरबरी के शुरू में ही प्रकट हो चुका था। लेकिन यह भी कोई शायद ही भूला हो कि जिस वक्त कोरोना भारत में अपने कदम बड़ा रहा था, भारत के मगरूर शासक श्री ट्रंप की मेहमाननवाजी में जुटे थे जो खुद अपने देश की जनता को कोरोना के हाथों मरता छोड़ भारत में घूम रहे थे। कोरोना से निपटने की तैयारी करने के वक्त हमारे शासक मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार को अपदस्थ करने में जुटे थे। अल्पसंख्यकों से सीएए- एनपीआर- एनआरसी विरोधी आंदोलन का बदला चुकाने को दिल्ली के दंगों में हाथ आज़मा रहे थे।
यह तब भी मालूम था और आज भी कि कोविड- 2019 का आयात हवा- पानी से नहीं अपितु विदेशों से लौट रहे कुलीन वर्ग के माध्यम से हो रहा है। लेकिन तब यह सरकार क्यों नहीं चेती और क्यों विदेशों से लौट रहे संप्रभुओं को क्वारंटाइन नहीं किया, यह आज कोई अबूझ पहेली नहीं है। लोग व्योम मार्ग से आते रहे, लाये जाते रहे है और मामूली खाना- पूरी करके घरों को भेजे जाते रहे। इनमें से अधिकतर उद्योगपति, व्यापारी, डाक्टर्स, इंजीनियर्स और अधिकारी थे। अगले ही दिन से ही ये महानुभाव अपने कार्यस्थलों पर सक्रिय होगये और बड़े पैमाने पर वायरस को इन्हीं ने फैलाया। याद करिये कि लाक डाउन लागू होने के प्रारंभ के तीन दिनों तक तबलीगी जमात कोई मुद्दा नहीं था। सोची समझी रणनीति के तहत यह मुद्दा तब उछाला गया जब खुली जेलों में बंद प्रवासी मजदूर सड़कों पर उतर आए।
फरवरी के प्रारंभ में जिस तरह से विदेशों में फंसे कुलीनों को घर पहुंचाने की तत्परता दिखाई गयी, ऐसी ही तत्परता इस मामले में भी दिखाई गयी होती तो मजदूरों कर्मचारियों, छात्रों, पर्यटकों और जहां तहां फंसे अन्य लोगों की यह दर्दनाक दशा न होती। स्पेशल ट्रेन चला कर बसों के द्वारा अथवा अन्य साधनों से उन्हें फरबरी के मध्य तक घरों को भेजा जा सकता था। हम बार बार कहते आए हैं कि उन्हें उनके घर पहुंचने पर क्वारंटाइन किया जा सकता था। इससे प्रवास में फंसे करोड़ों प्रवासी अंडमान जेल जैसे काले पानी की सजा से बच जाते। उनके परिवारी भी उस यातना से बच जाते जो उन्होने संकट की इस घड़ी में अपनों के बिना और अर्थभाव में झेली है।
बंबई, हैदराबाद, सूरत, चेन्नई, दिल्ली, नोएडा, बनारस, हरिद्वार और देश के कोने कोने में फंसे प्रवासीजन भूख, भय, उपेक्षा, यातना और कैद की जिन्दगी जीने को अभिशप्त थे। जब भी वे यातनाओं की जंजीरों को तोड़ कर सड़कों पर उतरे उन्हें लाठियों से पीटा गया, खदेड़ा गया और जेलों में डाल दिया गया। उसके बावजूद उनमें से अनेक- स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग पैदल, साइकिल, रिक्शों से हजारों किलो मीटर की दूरी पार कर घरों को निकल लिये। उनमें से अनेक ने भूख, प्यास और बीमारी के चलते घर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया। असंख्य थे जिन्हें राज्यों की सीमाओं पर रोक दिया गया। अथवा जहां पुलिस के हत्थे चड़े, बीच मार्ग में क्वारंटाइन कर दिया गया। लग ही नहीं रहा था कि वे इसी देश के वही मजदूर हैं जो इस देश के लिये दौलत पैदा करते हैं और उनकी दुर्गति बनाने वाली सरकार वही है जिसे बनाने को उन्होने भी मतदान किया है।
इस बीच हरिद्वार से गुजराती पर्यटकों, वाराणसी से दक्षिण भारतीय पर्यटकों और कोटा से छात्रों को घर पहुंचाने की खबरें गरीब और साधारण प्रवासियों को उनकी बेबसी की याद दिलाती रहीं। अनेक थे जो अलग अलग कारणो से प्रवास में फंसे थे। झारखंड से आयी एक बारात पूरे एक माह तक अलीगढ़ जनपद के एक गाँव में फंसी रही। कोई नहीं समझ पारहा था कि जिस तालाबंदी की घोषणा 22 फरबरी को की गयी, उसकी पूर्व सूचना एक माह पूर्व क्यों नहीं दे दी गयी।
यदि लोगों को सप्ताह भर पहले आगाह किया गया होता और अतिरिक्त रेल गाडियाँ चला दी गईं होतीं तो निश्चय ही लोग सकुशल घरों तक पहुँच गये होते। हमें मालूम है कि बंगला देश और कई अन्य देशों ने ऐसा ही किया था। अगर ऐसा हुआ होता तो पहले ही घर पहुँच कर ग्रामीण मजदूर फसल कटाई करके जीवनयापन हेतु कुछ कमाई तो कर ही सकते थे बार बार बदल रहे मौसम से फसलों की हानि को उसकी कटाई कम कर सकते थे। आज वे जब घर पहुंचेंगे उन्हें लंबे समय तक बेरोजगारी और भूख के दंश को झेलना पड़ेगा।
बेहद देर से लिया गया यह फैसला प्रवासियों के उस आक्रोश का परिणाम है जो अनेक रूपों में प्रकट होरहा था। उन्हें वापस लाने के लिये तमाम सांसदों, विधायकों और अन्य जन प्रतिनिधियों पर उनके क्षेत्र की जनता का दबाव लगातार बढ़ रहा था। थाली, ताली और आतिशबाजियों के माध्यम से रचा कुहासा जीवन की बढ़ती कठिनाइयों से छंटने लगा था। कोरोना फैलाने की जमातियों के ऊपर मढ़ी गयी तोहमत भी कालक्रम से धूमिल होने लगी थी।
इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूर और छात्र सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करने लगे थे। विपक्षी दल खास कर वामपंथी दल प्रवासियों को उनके घरों को पहुंचाने के लिये लगातार मुखरित होरहे थे। अतएव जनाक्रोश से बचने को कई मुख्यमंत्री अपने यहाँ के प्रवासियों को वापस लाने की योजना बनाने में जुट गये थे। सतह के नीचे ही सही शासक दल में दो फाड़ नजर आने लगे थे।
अब इन्हें घरों तक पहुंचाने/ लाने की कठिन चुनौती दरपेश है। उन्हें मानवीय हालातों में क्वारंटाइन में रखे जाने की चुनौती है। उनके इलाज और उनके परिवारों के भरण- पोषण की चुनौती है। उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने की चुनौती है। कोविड 2019 का वायरस आया है और चला जायेगा, पर भूख, अभाव और बेकारी का यह वायरस लंबे समय तक हमें चुनौती देता रहेगा। हम देख रहे हैं कि शासन और शासक वर्ग की नीतियाँ और कारगुजारियाँ लगातार बेनकाव होरही हैं। अतएव हमें एक न्यायसंगत सामाजिक- आर्थिक प्रणाली के निर्माण पर ज़ोर देना होगा। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस- मई दिवस पर हमें एक विश्वसनीय और सर्वग्राही आर्थिक- सामाजिक प्रणाली को विकसित करने के संकल्प को द्रढ़ करना होगा।