अनजान देश लीबिया: 27 रातें और हर पल मौत का साया…चंगुल से बच कर आए भारतीयों ने सुनाई आपबीती

हजारों किलोमीटर दूर एक अनजान देश। 27 काली रातें और हर पल मौत का साया। ऐसा दृश्य अमूमन रोंगटे खड़े कर देने वाली फिल्मों में होता है मगर खड्डा के गड़हिया बसंतपुर निवासी मुन्ना चौहान समेत सात भारतीयों ने लीबिया में अपहरण के दौरान एक दो घंटे नहीं पूरे 648 घंटे ऐसे ही माहौल में सांस ली। अपहरणकर्ता बात-बात पर उनके सीने पर ऑटोमेटिक गन व रायफल तान देते थे। इतने दिनों में ऐसे दर्जनों मौके आए जब लगता था कि जान गई।

लीबिया में बीते 14 सितंबर को कुशीनगर के मुन्ना चौहान, बगहा बिहार के अजय शाह, देवरिया जिले में देसही देवरिया के महेन्द्र सिंह, गुजरात के उम्मेंद्रि भाई मुल्तानी, आंध्र प्रदेश के वेंकटराव बटचला, अर्थात्मराज उर्फ गोगा, दन्याबंदु दीनदयाल उर्फ धनिया का लीबिया में विद्रोहियों ने तब अपहरण कर लिया था, जब वह सभी मैजिक गाड़ी से भारत लौटने के लिए एयरपोर्ट जा रहे थे। गुरुवार को घर लौटे मुन्ना चौहान ने हिन्दुस्तान से आपबीती बयां की।

 बताया कि अचानक असलहे लेकर चार लोग सड़क पर आ गए और गाड़ी रोक ली। मैजिक का चालक लीबिया का ही था। उसने देखते ही इशारा किया कि विद्रोही आ गए हैं। जो कहते हैं करते जाओ, वरना मार देंगे। पास आने के बाद हम सभी उनके आदेश का पालन करने लगे। सभी के चेहरे भावशून्य थे। आपस में जब भी वह कोई बात करते तो हम सब परेशान हो जाते कि कोई गलती तो नहीं हो गई। उनमें दो टूटी-फूटी हिन्दी बोल रहे थे।  

विद्रोहियों ने हमारे सामान गाड़ी में छोड़ दिए। हमारे कंपनी के कागज व पासपोर्ट व वीजा आदि के साथ हम लोगों को उतार कर अपनी गाड़ी में बैठाया और धमकाया कि भागने या चिल्लाने की कोशिश की तो गोली मार देंगे। सुबह से लगातार लंबे सफर के बाद एक जगह रोका। कमरे में ले गए। रात में पाव व क्रीम दिया। भूख तो जैसे सभी की गायब हो गई थी। कुछ देर बाद कमरे में आकर कहा कि यही मिलेगा, खा लो। पानी दिया। कहा कि उन्हें कंपनी से पैसे चाहिए। जब तक पैसे नही मिलते, उन्हें वहीं रहना होगा। रादो दिन यहां रखकर विद्रोहियों के दूसरे गुट से बेच दिया गया। यहां भी दो दिन तक हलक से नीचे खाना पानी नहीं उतर रहा था। मगर जीने के लिए खाना तो था ही। सभी ने दो-दो पाव व क्रीम खाकर किसी तरह दिन काटा। 

10 अक्तूबर की शाम को विद्रोहियों ने बताया कि तुम्हें छोड़ा जा रहा है। पांच किमी दूर पैदल ले जाया गया। वहां हमारी कंपनी के एक आदमी को हम लोगों को सौंप दिया गया। कंपनी का आदमी फिर हम लोगों को लेकर अपने घर गया। रात बिताने के बाद अगले दिन हमें कंपनी पहुंचाया गया। भारत सरकार यदि दबाव नहीं बनाई होती तो हम शायद नहीं लौटते। हम पर जरूर ईश्वर की बड़ी कृपा थी वरना मौत के मुंह से सलामत लौटना, किस्मत की ही बात होती है। यह हमारी जिंदगी के सबसे स्याह दिन थे, सभी ने लौटते समय तय किया कि अब वह दिन कभी याद नहीं करना है। मगर ऐसे दिन भला क्या कभी किसी की स्मृति से ओझल हुए हैं?      

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